________________
[ एक सौ चौवन ]
सोहम्मादी - अच्चुदपरियंतं चविहदाणपट्टा
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
जंति
देवदत्ता ।
अकसाया
पंचगुरुभत्ता ॥ ८/५८१ ॥
सम्मत्तणाणअज्जवलज्जासीलादिएहि जायंते इत्थीआ
जा
जिणलिंगधारिणो जे उक्किट्ठतवस्समेण संपूण्णा ।
परिपूण्णा ।
अच्चुद- कप्प - परियंतं ॥ ८ / ५८२ ॥
Jain Education International
जायंति अभव्वा उवरिम - गेवज्ज- परियंतं ॥ ८/५८३ ॥
परदो
अच्चण-वद-तव- दंसण- णाण- चरणसंपण्णा । णिग्गंथा जायंते भव्वा सव्वट्टसिद्धिपरियंतं ॥ ८/५८४॥
ये सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और गृहस्थमुक्ति के निषेध की स्पष्ट घोषणाएँ हैं । इन यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों के प्रतिपादन से सिद्ध हो जाता है कि तिलोयपण्णत्ती के कर्त्ता आचार्य यतिवृषभ को यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध मानना सत्य का कितना बड़ा अपलाप है! उक्त यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्त दिगम्बरजैन सिद्धान्त हैं। तिलोयपण्णत्ती में उनकी उपलब्धि प्रमाणित करती है कि वह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है ।
अध्याय १८ – सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिगम्बराचार्य
आचार्य सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र ( सम्मइसुत्तं ) प्राचीनकाल से दिगम्बरग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु कुछ आधुनिक श्वेताम्बर विद्वानों ने उसे श्वेताम्बरग्रन्थ तथा कुछ नवीन दिगम्बर - शोधकर्त्ताओं ने यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। डॉ० सागरमल जी ने उसे स्वकल्पित उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का ग्रन्थ बतलाया है। माननीय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने गहन अनुसन्धान करके प्रबल युक्तियों और प्रमाणों के द्वारा सिद्ध किया है कि वह दिगम्बर-ग्रन्थ ही है । उनका यह अनुसन्धानात्मक लेख उनके पुरातन - जैनवाक्य-सूची नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना का अंग है, जो पृष्ठ ११९ से १६८ तक सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन शीर्षक से मुद्रित है। उनके शोध - निष्कर्ष नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं
१. कल्याणमन्दिरस्तोत्र, २. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ( स्तुतिग्रन्थ) ३. सन्मतिसूत्र और ४. न्यायावतार, इन चार कृतियों को श्वेताम्बर विद्वान् एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ मानते हैं और यतः कुछ द्वात्रिंशिकाओं में श्वेताम्बरीय सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, इसलिए कल्याणमन्दिरस्तोत्र एवं सन्मतिसूत्र को भी श्वेताम्बरग्रन्थ कहते हैं ।
क - पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार का कथन है कि वर्तमान कल्याणमन्दिर स्तोत्र के अन्तिम पद्य में सूचित किये गये कुमुदचन्द्र नाम के अनुसार दिगम्बर जैन उसे कुमुदचन्द्राचार्यकृत दिगम्बरजैन कृति मानते हैं। यह युक्तिसंगत है, क्योंकि उसमें
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org