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________________ ग्रन्थसार [एक सौ तिरपन] ४. हेतु-'आर्या म्लेच्छाश्च' (त.सू./श्वे./३/१५) सूत्र के भाष्य में अन्तरद्वीपों के नाम वहाँ के मनुष्यों के नाम पर पड़े हुए बतलाये गये हैं। भगवती-आराधना की विजयोदयाटीका में भी ऐसा ही कहा गया है। चूँकि अपराजितसूरि यापनीय हैं, अतः उपर्युक्त मतसाम्य से भाष्यकार, जो कि सूत्रकार भी हैं, यापनीय सिद्ध होते हैं। निरसन-अपराजित सूरि पक्के दिगम्बराचार्य थे, यह पूर्व में अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया जा चुका है। अतः उक्त मतसाम्य से भाष्यकार यापनीय सिद्ध नहीं होते। फलस्वरूप भाष्यकार को ही सूत्रकार मानने पर भी यह सिद्ध नहीं होता कि तत्त्वार्थसूत्र यापनीयग्रन्थ है। इस तरह तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर-सम्प्रदाय, यापनीय-सम्प्रदाय और उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये समस्त हेतुओं के निरस्त हो जाने तथा उसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और केवलिभुक्ति की मान्यताओं का निषेध होने से सिद्ध होता है कि वह न श्वेताम्बरसम्प्रदाय का ग्रन्थ है, न यापनीयसम्प्रदाय का और न कपोलकल्पित उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थसम्प्रदाय का, अपितु दिगम्बरसम्प्रदाय का है। अध्याय १७-तिलोयपण्णत्ती डॉ० सागरमल जी ने आचार्य यतिवृषभकृत तिलोयपण्णत्ती का अध्ययन किये बिना ही उसे यापनीयग्रन्थ घोषित कर दिया है। वे लिखते हैं-"यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों में न तो स्त्रीमुक्ति का निषेध है और न केवलिभुक्ति का, अतः उन्हें यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध मानने में कोई बाधा नहीं आती।" (जै. ध. या. स./पृ. ११५)। . किन्तु , यतिवृषभकृत तिलोयपण्णत्ती में तो स्पष्ट शब्दों में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध है। यथा चउविह-उवसग्गेहिं णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो। छुह - पहुदि - परिसहेहिं परिचत्तो रायदोसेहिं॥ १/५९॥ एदेहिं अण्णेहिं विरचिद-चरणारविंद-जुगपुग्जो। दिट्ठ - सयलट्ठ - सारो महावीरो अत्थकत्तारो॥ १/६४॥ इन गाथाओं में भगवान् महावीर को स्पष्टतः क्षुधा आदि बाईस परीषहों से रहित बतलाया गया है, जो डंके की चोट पर केवलिभुक्ति का निषेध है। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती की निम्नलिखित गाथाओं में देशव्रतियों (श्रावकों) और स्त्रियों का गमन अच्युत स्वर्ग (सोलहवें कल्प) तक, अभव्य जिनलिंगधारियों का नौवें ग्रैवेयकपर्यन्त तथा निर्ग्रन्थों का सर्वार्थसिद्धि तक बतलाया गया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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