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________________ [ एक सौ बावन ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ प्रमाणों से सिद्ध होता है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों का अस्तित्व ईसापूर्व - काल में भी था, अतः तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ एवं उसके भाष्य के कर्त्ता उमास्वाति श्वेताम्बर ही थे। ० तत्त्वार्थसूत्र के यापनीयग्रन्थ न होने के प्रमाण दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी ने माना है कि तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य दोनों के कर्त्ता उमास्वाति हैं । और ऐसा मानते हुए उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि तत्त्वार्थसूत्र यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है । किन्तु इसके समर्थन में उन्होंने जो हेतु प्रदर्शित किये हैं, वे यथार्थ से परे हैं । अतः उनसे यह सिद्ध नहीं होता तत्त्वार्थसूत्र यापनीयग्रन्थ है । यथा १. हेतु - श्वेताम्बर - तत्त्वार्थसूत्र के अष्टम अध्याय के अन्तिमसूत्र में पुरुषवेद, हास्य, रति और सम्यक्त्वमोहनीय को पुण्यप्रकृति बतलाया गया है, अतः तत्त्वार्थसूत्र यापनीयग्रन्थ है । (अध्याय १६ / प्र.६) । निरसन -पक्के दिगम्बराचार्य अपराजितसूरि ने भी दिगम्बरग्रन्थ भगवती - आराधना की 'अणुकंपासुद्धवओगो' गाथा (१८२८ ) की विजयोदयाटीका में तथा दिगम्बराचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला तथा जयधवला टीकाओं में उपर्युक्त चार को पुण्य प्रकृति कहा है। अतः जैसे ये यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होते, वैसे ही तत्त्वार्थसूत्र भी सिद्ध नहीं होता। (अध्याय १४/प्र.२ / शी. ११) । २. हेतु - भाष्य (७/३) में पाँच व्रतों की जो पाँच-पाँच भावनाएँ बतलायी गयी हैं, उनमें अचौर्यव्रत की भावनाएँ भगवती - आराधना के अनुसार हैं, सर्वार्थसिद्धि के अनुसार नहीं। इससे भी मालूम होता है कि भाष्यकार और भगवती - आराधना के कर्त्ता, दोनों यापनीय हैं। निरसन- भगवती-आराधना दिगम्बरग्रन्थ है, यह सिद्ध किया जा चुका है। अतः भाष्यकार ने अचौर्यव्रत की भावनाएँ वहाँ से ग्रहण की हैं, इस कारण वे यापनीय सिद्ध नहीं हो सकते । अन्य हेतुओं से भाष्यकार भले ही यापनीय सिद्ध होते हों, तत्त्वार्थसूत्रकार यापनीय सिद्ध नहीं होते । ३. हेतु — भगवती - आराधना और मूलाचार के अनुसार ही तत्त्वार्थसूत्र में द्वादश अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है और उक्त दोनों ग्रन्थ यापनीयपरम्परा के हैं, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र भी उसी परम्परा का है। निरसन - पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है कि उक्त दोनों ग्रन्थ दिगम्बरपरम्परा के हैं, अतः उपर्युक्त हेतु से तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बर- परम्परा का ही ग्रन्थ सिद्ध होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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