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ग्रन्थसार
[एक सौ इक्यावन] दो सौ वर्ष पहले अर्थात् विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी निश्चित की है। (त. सू./ वि.स./प्रस्ता./पृ.७-८)।
किन्तु, आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों की रचना ईसापूर्व प्रथम शती के अन्तिम चरण तथा ईसोत्तर प्रथम शती के प्रथम चरण में की थी, और प्रथम शती ई० के तृतीय चरण में भगवती-आराधना एवं चतुर्थ चरण में मूलाचार की रचना हुई थी, जिनमें कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से अनेक गाथाएँ ग्रहण की गई हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रकाशित नन्दिसंघ की पट्टावली में तथा श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में आचार्य कुन्दकुन्द के शिष्य बतलाये गये हैं और उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र की रचना आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों, भगवती-आराधना तथा मूलाचार के आधार पर की है, जिससे उनका स्थितिकाल ईसा की द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध फलित होता है। (अध्याय १०/प्र.१/शी.४)। - त. सू. के उ. भा. सचेला. निर्ग्रन्थ सम्प्र. का ग्रन्थ न होने के प्रमाण
डॉ० सागरमल जी ने एक नई उद्भावना यह की है कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के कर्ता उमास्वाति न दिगम्बर थे, न श्वेताम्बर, न यापनीय, अपितु वे सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि की मान्यताओंवाले उस उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के आचार्य थे, जो उक्त तीनों सम्प्रदायों से पूर्ववर्ती था और ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में जिसके विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी में रचित तत्त्वार्थसूत्र और उसका भाष्य उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय की कृतियाँ हैं।
निरसन
१. उत्तरभारतीय - सचेलाचेल - निर्ग्रन्थ - सम्प्रदाय का अस्तित्व ही नहीं था, यह द्वितीय अध्याय के तृतीय प्रकरण में सिद्ध किया गया है। अतः जिस सम्प्रदाय का अस्तित्व ही नहीं था, उमास्वाति उस सम्प्रदाय के आचार्य नहीं हो सकते। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र का श्वेताम्बरमान्य पाठ और उसका भाष्य उक्त सम्प्रदाय की कृतियाँ नहीं हैं।
२. ईसापूर्व छठी शताब्दी के बुद्धवचनसंग्रहभूत बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में, प्रथमशताब्दी ई० के बौद्धग्रन्थ दिव्यावदान में तथा ईसापूर्व तृतीय शताब्दी के सम्राट अशोक के देहली (टोपरा) के सप्तम स्तम्भलेख में निर्ग्रन्थ शब्द से दिगम्बर जैन मुनियों का उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार अशोककालीन या ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के बौद्धग्रन्थ अपदान में सेतवत्थ (श्वेतवस्त्र = श्वेतपट) शब्द से श्वेताम्बरजैन साधुओं की चर्चा की गई है। (देखिये, अध्याय ४/प्र.२ / शी.१.१, १.२ तथा १४)। इन ऐतिहासिक
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