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________________ [ एक सौ पचास ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ "1 मानते हैं) यह सूत्र तत्त्वार्थसूत्र का मौलिक सूत्र नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र में "वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' (त.सू. / श्वे. ५ / २२) तथा " सोऽनन्तसमयः " (त. सू. / श्वे./५/३९) इन सूत्रों के द्वारा कालद्रव्य के उपकार तथा अनन्तसमय रूप पर्यायें बतलायी गयी हैं, जिससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार को कालद्रव्य की स्वतंत्र सत्ता मान्य है। अतः “कालश्च" (त. सू. / दि. / ५ / ३९) सूत्र ही तत्त्वार्थसूत्र का मौलिक सूत्र है। (अध्याय १६/प्र.३/शी. १-३) । ज - केवली का दर्शनज्ञानयौगपद्य दिगम्बरमान्य पं० सुखलाल जी संघवी का एक तर्क यह है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ( १ / ३१ ) में केवली भगवान् के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग का युगपत् होना माना गया है, जो दिगम्बरग्रन्थों में दिखाई नहीं देता। इसलिए तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ नहीं है । निरसन—सर्वार्थसिद्धि (२/९) तथा कुन्दकुन्दाचार्यकृत नियमसार (गा. १६०) में स्पष्ट शब्दों में उपर्युक्त यौगपद्य स्वीकार किया गया है। वह श्वेताम्बर - आगमों में मान्य नहीं है, अतः भाष्यकार ने सर्वार्थसिद्धि से ही उसे ग्रहण किया है । (अध्याय १६/ प्र.३/ शी. ४) । इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र को दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ असिद्ध करने के लिए माननीय संघवी जी एवं डॉ० सागरमल जी ने जितने भी तर्क उपस्थित किये हैं, वे सब निरस्त हो जाते हैं, और सिद्ध होता है कि वह दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। झ - - तत्त्वार्थसूत्र की रचना के आधार दिगम्बरग्रन्थ श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों का कथन है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना श्वेताम्बर - आगमों के आधार पर हुई है, अतः वह श्वेताम्बरग्रन्थ है। निरसन - श्वेताम्बरमुनि उपाध्याय श्री आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्र - जैनागमसमन्वय नामक ग्रन्थ में श्वेताम्बर - आगमों से उन कथनों को उद्धृत किया है, जिनके आधार पर उनके अनुसार तत्त्वार्थ के सूत्रों की रचना हुई है। किन्तु तत्त्वार्थ के अधिकांश सूत्रों की उनके साथ न तो शब्दगत समानता है, न अर्थगत और न रचनागत । ये समानताएँ दिगम्बरग्रन्थों के सूत्रों और गाथाओं के साथ हैं। इस कारण तत्त्वार्थ के सूत्रों की रचना के आधार दिगम्बरग्रन्थ हैं, इसलिए वह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है । ( अध्याय १६ / प्र.४ )। ञ - तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल : द्वितीय शती ई० का पूर्वार्ध पं० सुखलाल जी संघवी ने 'सर्वार्थसिद्धि' का रचनाकाल विक्रम की पाँचवींछठीं शताब्दी स्वीकार कर तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति के समय की उत्तरसीमा उससे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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