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________________ [ एक सौ उनचास ] सर्वार्थसिद्धि का रचनाकाल ४५० ई० निर्धारित किया गया है और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की रचना पाँचवीं शती ई० के उत्तरार्ध में वलभीवाचना के समय श्वेताम्बर - परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र के लिपिबद्ध किये जाने के पश्चात् हुई है । और उसमें विशेषावश्यकभाष्य-मान्य लोकरूढ़ - नाग्न्य या उपचरित-नाग्न्य का उल्लेख न होने से उसका रचनाकाल छठी शती ई० का पूर्वार्ध सिद्ध होता है । (अध्याय १६ / प्र.२ / शी. ७) । इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के रचनाकाल की पूर्वापरता से भी सिद्ध है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। ग्रन्थसार तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता का नाम गृध्रेपिच्छाचार्य है और तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार का नाम उमास्वाति है । दिगम्बराचार्यों ने भ्रम से उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का कर्त्ता मान लिया और १६वीं शती ई० के श्रुतसागरसूरि ने 'तत्त्वार्थवृत्ति' में उमास्वाति के स्थान में 'उमास्वामी' शब्द का प्रयोग कर दिया। तब से उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता कहलाने लगे। (अध्याय १६ / प्र.२ / शी. ८ ) । छ - सभी सूत्र दिगम्बरमत-सम्मत श्वेताम्बर विद्वानों का कथन है कि तत्त्वार्थसूत्र के निम्नलिखित सूत्र दिगम्बरमत के विरुद्ध और श्वेताम्बरमत के अविरुद्ध हैं १. दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यान्ताः (४ / ३ ) । २. एकादश जिने (९ / ११) । ३. मूर्च्छा परिग्रह: (७ /१७)। ४. पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः (९/४६)। ५. कालश्चेत्येके । (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य-मान्य पाठ ५ / ३८) । यतः ये सूत्र दिगम्बरमत के विरुद्ध और श्वेताम्बरमत के अविरुद्ध हैं, अतः तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ न होकर श्वेताम्बरपरम्परा का है। (जै.ध.या.स./ पृ. ३११-३१६)। निरसन - यह कथन सत्य नहीं है। उक्त सभी सूत्र दिगम्बरमत-सम्मत हैं । "मूर्च्छा परिग्रहः और "एकादश जिने" सूत्रों के दिगम्बरमत - सम्मत होने की सिद्धि पूर्व में की जा चुकी है। दिगम्बरमत में कल्पसंज्ञक स्वर्गों की संख्या बारह भी मानी गयी है और सोलह भी । इसलिए "दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः " (४/३) यह सूत्र दिगम्बरमतानुकूल है। पुलाक, बकुश आदि मुनियों का स्वरूप भी दिगम्बर मान्यताओं के विरुद्ध नहीं है । तथा " कालश्चेत्येके" (कुछ लोग काल को भी द्रव्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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