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[एक सौ अड़तालीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ निरसन-दिगम्बर-श्वेताम्बर-सम्प्रदायभेद तो जम्बूस्वामी के निर्वाण (४६५ ई० पू०) के बाद ही हो गया था, जब दोनों सम्प्रदायों की आचार्य-परम्परा अलग-अलग हो गयी थी। इस भेद का उल्लेख ईसापूर्वकालीन बौद्धसाहित्य में निर्ग्रन्थ और श्वेतवस्त्र नामों से हुआ है। अतः सिद्ध है कि सर्वार्थसिद्धि की तो क्या, तत्त्वार्थसूत्र की भी रचना दिगम्बर-श्वेताम्बर-सम्प्रदाय-भेद के बाद हुई है, तब तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की रचना उक्त भेद के पूर्व हुई हो, यह तो संभव ही नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र स्वयं दिगम्बरजैनसिद्धान्तों का प्रतिपादक ग्रन्थ है, यह पूर्व में दर्शाया जा चुका है। इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि
और भाष्य दोनों ही सम्प्रदायभेद के बाद की कृतियाँ हैं, अतः सम्प्रदायभेद के आधार पर यह सिद्ध नहीं होता कि सर्वार्थसिद्धि भाष्य से उत्तरकालीन है।
डॉ. सागरमल जी ने पृष्ठसंख्या या पंक्तिसंख्या की न्यूनाधिकता के आधार पर अर्थ का विस्तार या अविस्तार माना है। वे लिखते हैं-"सर्वार्थसिद्धि के प्रथम अध्याय के ८वें सूत्र की व्याख्या में लगभग सत्तर पृष्ठों में गुणस्थान और मार्गणास्थान की चर्चा की गई है, जब कि तत्त्वार्थभाष्य में गुणस्थानसिद्धान्त का पूर्णतः अभाव है। उसमें प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की व्याख्या केवल दो पृष्ठों में समाप्त हो गई है। (जै. ध. या. स./पृ.३०३)।
निरसन-उक्त बात लिखते समय डॉक्टर सा० भूल गये कि दसवें अध्याय के 'क्षेत्रकालगतिलिङ्ग' इत्यादि सूत्र (१०/७) की व्याख्या, जहाँ सर्वार्थसिद्धि में २५ पंक्तियों में की गयी है, वहाँ भाष्य में १४१ पंक्तियों का प्रयोग हुआ है। और ऐसे ३० सूत्र हैं, जिनकी व्याख्या सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य में दुगुनी, चौगुनी, पचगुनी, और छहगुनी पंक्तियों में की गयी है, प्रथम अध्याय के ८ वें सूत्र के भाष्य में बहुत कम पंक्तियाँ प्रयुक्त हुई हैं, इसका कारण यह है कि भाष्यकार ने व्याख्या की ही नहीं है। अनेक सूत्रों में ऐसा हुआ है। जहाँ व्याख्या ही नहीं की गयी है, वहाँ व्याख्यागत विस्तार और अविस्तार का निर्णय किया ही नहीं जा सकता। जहाँ व्याख्या है, वहाँ भाष्य में अनेकत्र सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अधिक पंक्तियों का प्रयोग हुआ है, अतः इस दृष्टि से भी भाष्य ही अर्वाचीन सिद्ध होता है। (अध्याय १६/प्र.२/शी.६)।
डॉक्टर सा० का यह कथन भी मिथ्या है कि भाष्य में गुणस्थानसिद्धान्त का पूर्णतः अभाव है। तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ जिन गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है, वहाँ भाष्य में भी उन गुणस्थानों के नाम वर्णित हैं। अतः गुणस्थानविकासवाद की मिथ्या धारणा के आधार पर भी सर्वार्थसिद्धि को तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की अपेक्षा अर्वाचीन नहीं कहा जा सकता।
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