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________________ ग्रन्थसार [एक सौ सैंतालीस] पं० सुखलाल जी संघवी ने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य को सर्वार्थसिद्धि से प्राचीन सिद्ध करने के लिए तीन हेतु प्रस्तुत किये हैं, जो सत्य नहीं है। यथा १. हेतु-सर्वार्थसिद्धि में सम्यक्, दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि शब्दों का व्याकरणिक विश्लेषण भाष्य की अपेक्षा विस्तार से किया गया है तथा दार्शनिक विवेचन भी अधिक है। अतः सर्वार्थसिद्धि की निरूपणशैली भाष्य से अर्वाचीन है, जो उसके परवर्ती होने का लक्षण है। निरसन-भाष्य में ऐसे अनेक तत्त्व उपलब्ध होते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि उसकी शैली में सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अधिक नवीनता है। उदाहरणार्थ • सर्वार्थसिद्धि में मंगलाचरण, सम्बन्धकारिकाएँ आदि नहीं हैं। 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगलाचरण सूत्रकारकृत है। (अध्याय १६/प्र.२/ शी.६.१/१)। किन्तु भाष्य में सम्बन्ध-कारिकाओं के नाम से बाईस श्लोकोंवाला मंगलाचरण निबद्ध है। इतना ही नहीं उसके पश्चात् नौ श्लोकों में ग्रन्थरचना के प्रयोजन आदि वर्णित हैं। सर्वार्थसिद्धि के अन्त में उपसंहाररूप में किसी विषय का वर्णन नहीं है, जब कि भाष्य में ३२ श्लोकात्मक विस्तृत उपसंहार है। सर्वार्थसिद्धि में प्रत्येक अध्याय के अन्त में भी श्लोकबद्ध उपसंहार नहीं है, भाष्य में है। सर्वार्थसिद्धि में आलंकारिक प्रयोग अल्प हुए हैं, भाष्य में इनकी बहुलता दृष्टिगोचर होती है। . - सर्वार्थसिद्धि में पर्यायशब्दों का प्रयोग भी अत्यल्प है, भाष्य में प्रचुर है। - सर्वार्थसिद्धि में नयवाद शब्द का प्रयोग नहीं है, भाष्य में अनेकत्र है। २. हेतु-भाष्य में अर्थ का विस्तार नहीं है, सर्वार्थसिद्धि में है। अतः सर्वार्थसिद्धि भाष्य के बाद रची गयी है। निरसन-भाष्य में अन्य प्रकार से सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अधिक विस्तार उपलब्ध होता है। (अध्याय १६ / प्र.२ / शी.६.२)। ३. हेतु-भाष्य में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का तत्त्व दिखाई नहीं देता, सर्वार्थसिद्धि में दिखाई देता है। इससे स्पष्ट होता है कि अचेलकत्व, स्त्रीमुक्ति, केवलिकवलाहार, कालतत्त्व जैसे विषयों पर तीव्र मतभेद हो जाने के बाद ही सर्वार्थसिद्धि लिखी गयी है, जो उसके भाष्य से अर्वाचीन होने का प्रमाण है। (अध्याय १६/प्र.२ / शी.६.४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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