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________________ [एक सौ छियालीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ हैं, किन्तु वह सूत्रकारकृत नहीं है। दूसरे, तत्त्वार्थसूत्र के उक्त भाष्य में भाष्यकार ने कोई छोटी-मोटी खींचतान नहीं की है, कोई मामूली सन्देह या विकल्प पैदा नहीं किये हैं, उन्होंने इतनी गम्भीर सैद्धान्तिक विपरीतताएँ और प्ररूपणशैली में इतनी ज्यादा विसंगतियाँ उत्पन्न की हैं कि उनके द्वारा वे अपने को सूत्रकार से बिलकुल विरुद्ध दिशा में खींचकर ले गये हैं और सिद्ध कर दिया है कि वे सूत्रकार से सर्वथा भिन्न व्यक्ति हैं। (अध्याय १६ / प्र.१ / शी. २ एवं ४.३)। च-भाष्य सर्वार्थसिद्धि से उत्तरकालीन श्वेताम्बर विद्वानों तथा दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी का कथन है कि सर्वार्थसिद्धिटीका और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में अनेकत्र वाक्यगत साम्य है, जिससे सिद्ध होता है कि सर्वार्थसिद्धि में भाष्य का अनुकरण किया गया है, अतः भाष्य की रचना सर्वार्थसिद्धि से पूर्व हुई है। किन्तु यह मत समीचीन नहीं है। निम्नलिखित प्रमाण सिद्ध करते हैं कि सर्वार्थसिद्धि भाष्य से पूर्ववर्ती है, अतः भाष्य में ही सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण हुआ है १. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के अन्त में दिये हुए ३२ श्लोक तत्त्वार्थराजवार्तिक, जयधवला-टीका एवं तत्त्वार्थसार में उपलब्ध होते हैं, किन्तु सर्वार्थसिद्धि में नहीं। तथा कालद्रव्य के परत्वापरत्वरूप उपकार का भाष्यकार द्वारा उल्लिखित प्रशंसाकृत भेद तत्त्वार्थराजवार्तिक में ग्रहण किया गया है, किन्तु सर्वार्थसिद्धि में नहीं। इसी प्रकार भाष्यमान्य सूत्रपाठ और भाष्य में जो विसंगतियाँ हैं, न तो उनकी चर्चा सर्वार्थसिद्धि में की गयी है, न ही भाष्य में साधु के वस्त्रपात्रादि उपभोग का जो समर्थन किया गया है, उसका खण्डन सर्वार्थसिद्धि में मिलता है, जब कि तत्त्वार्थराजवार्तिक में ये दोनों बातें उपलब्ध होती हैं। इन तथ्यों से सिद्ध होता है कि सर्वार्थसिद्धिकार के समक्ष तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उपस्थित नहीं था अर्थात् उस समय तक उसकी रचना नहीं हुई थी। २. दूसरी ओर उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय के बाह्य और आभ्यन्तर भेद, प्रतरादिभेद से नारकियों की अवगाहना, अन्तरद्वीपों की ९६ संख्या, लौकान्तिक देवों के नौ के स्थान में आठ भेद तथा केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग के युगपत् होने का मत, ये सिद्धान्त भाष्य में सर्वार्थसिद्धि से आये हैं। (अध्याय १६/प्र.२/ शी.३) "श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम्" (त.सू./१/२०) के भाष्य में द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु यह पाठ भी सर्वार्थसिद्धि (१ / २६) से ग्रहण किया गया है। ये तथ्य भी सिद्ध करते हैं कि भाष्य सर्वाथसिद्धि के पश्चात् रचा गया है। अतः सर्वार्थसिद्धि के पूर्व निर्मित तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता और सर्वार्थसिद्धि के पश्चात् प्रणीत तत्त्वार्थाधिगमभाष्य का कर्ता, दोनों एक ही व्यक्ति नहीं हो सकते, इसलिए दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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