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________________ ग्रन्थसार [एक सौ पैंतालीस] १. हेतु-सिद्धसेनगणी ने 'तत्त्वार्थाधिगमभाष्य' की वृत्ति में सूत्रकार और भाष्यकार को अभिन्न बतलाया है। निरसन-इस विषय में सिद्धसेनगणी की स्थिति संशयापन्न रही है, क्योंकि कहीं वे तत्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थभाष्यकार को एक व्यक्ति मान लेते हैं और कहीं दो। (अध्याय १६ / प्र. १ / शी. ४.१)। तथा विक्रम की तेरहवीं शती के बाद हुए श्वेताम्बर मुनि श्री रत्नसिंहसूरि ने तत्त्वार्थसूत्रकार को उमास्वाति नाम से अभिहित किया है और भाष्यकार के नाम से अनभिज्ञता प्रकट की है। ये इस बात के सबूत हैं कि सूत्रकार और भाष्यकार एक व्यक्ति नहीं हैं। २. हेतु-प्रारम्भिक कारिकाओं में और कुछ स्थानों पर भाष्य में भी वक्ष्यामि, वक्ष्यामः आदि उत्तमपुरुष की क्रिया का निर्देश है, और इस निर्देश में की गयी प्रतिज्ञा के अनुसार ही बाद में सूत्र में कथन किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं। निरसन-यह तो व्याख्या की शैली है। व्याख्याकार कहीं उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग कर व्याख्या करता है, जिससे ऐसा लगता है, जैसे मूलग्रन्थकार स्वयं अपने कथन की व्याख्या कर रहा हो, और कहीं मूलग्रन्थकार के साथ अन्यपुरुष की क्रिया जोड़कर व्याख्या करता है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्याख्याकार मूलग्रन्थकार के शब्दों की व्याख्या कर रहा है। प्रथम प्रकार की व्याख्याशैली के उदाहरण अनेक टीकाकारों की टीका में मिलते हैं, जैसे पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि टीका में कहते हैं-"तस्य स्वरूपमनवद्यमुत्तरत्र वक्ष्यामः" = उस मोक्ष का निर्दोष स्वरूप आगे (दशम अध्याय के द्वितीय सूत्र में) कहेंगे। (स. सि. / अध्याय १ / मंगलाचरण / पृ.२)। यहाँ टीकाकार पूज्यपाद स्वामी ने अपने साथ उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग कर इस प्रकार कथन किया है, जैसे वे स्वयं सूत्रकार हों, जब कि वे सूत्रकार नहीं हैं। अतः 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' के भाष्यकर ने यदि अपने साथ उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग कर व्याख्या की है, तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे स्वयं सूत्रकार हैं। ३. हेतु-भाष्य में किसी भी स्थल पर सूत्र का अर्थ करने में शब्दों की खींचतान नहीं हुई, कहीं सूत्र का अर्थ करने में सन्देह या विकल्प नहीं किया गया, न सूत्र की किसी दूसरी व्याख्या को मन में रखकर सूत्र का अर्थ किया गया और न कहीं सूत्र के पाठभेद का ही अवलम्बन लिया गया है। इसलिए सूत्रकार ही भाष्यकार हैं। निरसन-प्रथम तो सूत्रों का अर्थ करने में शब्दों की खींचतान न होना, सन्देह या विकल्प न होना आदि बातें किसी व्याख्या के सूत्रकारकृत होने का प्रमाण नहीं हो सकती, क्योंकि पातञ्जलसूत्र के व्यासकृत भाष्य में भी उक्त बातें पायी जाती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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