________________
[एक सौ चवालीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ लिए स कश्चित् (वह कोई) शब्दों का प्रयोग किया है, जब कि सूत्रकार का नाम उमास्वाति कई स्थानों पर दिया है। इससे ध्वनित होता है कि टिप्पणकार को भाष्यकार का नाम मालूम नहीं था और वे उसे सूत्रकार से भिन्न समझते थे।
२. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की रत्नसिंहसूरिकृत टिप्पणों से युक्त प्रति में भाष्यमान्य तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा कुछ अधिक सूत्र हैं, जिनमें से कुछ सूत्र तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बरमान्य पाठ में मिलते हैं। इससे ज्ञात होता है कि उपर्युक्त अधिक सूत्रोंवाला सूत्रपाठ भाष्यमान्य सूत्रपाठ के पहले से ही अस्तित्व में रहा होगा, जो सिद्धसेनगणी आदि टीकाकारों की दृष्टि में नहीं आया। इसलिए उन्होंने उमास्वाति को ही सूत्रकार और भाष्यकार दोनों मान लिया। घ-भाष्य से पूर्व भी तत्त्वार्थसूत्र पर टीकाएँ
१. तत्त्वार्थाधिगभाष्य में उपलब्ध उल्लेखों से सिद्ध होता है कि उसके पूर्व भी तत्त्वार्थसूत्र पर टीकाएँ लिखी गयी थीं। (अध्याय १६ / प्र.१ / शी.३.४)। यह तथ्य इस बात को असिद्ध कर देता है कि भाष्यकार. ही सूत्रकार थे।
२. तत्त्वार्थसूत्र के काल में जितने भी सूत्रग्रन्थ रचे गये हैं, उनमें से किसी पर भी उसके रचयिता ने कोई भाष्य या वृत्ति नहीं रची। पातञ्जलसूत्र, वैशेषिकसूत्र, वेदान्तसूत्र आदि इसके उदाहरण हैं। इससे स्पष्ट होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी अपने ग्रन्थ पर कोई भाष्य नहीं रचा। (अध्याय १६/प्र.१ / शी.५)।
. ३. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की प्रारंभिक कारिकाओं के अन्तर्गत २३वीं कारिका में जिनवचनरूपी महोदधि की महत्ता बतलाते हुए उसे दुर्गमग्रन्थभाष्यपार कहा गया है। टीकाकार श्री देवगुप्तसूरि ने इस पद का अर्थ इस प्रकार किया है-"उस जिनवचनरूपी महोदधि के ग्रन्थों और उन ग्रन्थों के अर्थ को बतलानेवाले जो उनके भाष्य हैं, उनका पार पाना कठिन है।" यहाँ तत्त्वार्थभाष्यकार ने आगमग्रन्थों के साथ उनके भाष्यों का भी उल्लेख किया है, अतः स्पष्ट है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की रचना भाष्यों के बाद में हुई है। भाष्यों का रचनाकाल विक्रम की ७वीं शती है। अतः तत्त्वार्थभाष्य सातवीं शती के पहले की रचना नहीं हो सकता। (अध्याय १६/प्र.१ / शी.५)।
ये बहुसंख्यक प्रमाण इस निर्णय में कोई सन्देह नहीं रहने देते कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता और उसके भाष्यकार एक व्यक्ति नहीं, अपितु भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। ङ–एकत्वसमर्थक हेतुओं का निरसन
श्वेताम्बर मनीषी पं० सुखलाल जी संघवी ने सूत्रकार और भाष्यकार को अभिन्न व्यक्ति सिद्ध करने के लिए जो हेतु विन्यस्त किये हैं, वे सब हेत्वाभास हैं। उनका निरसन करनेवाले प्रमाण आगे प्रस्तुत हैं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org