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________________ ग्रन्थसार [एक सौ तेंतालीस] (त. सू./श्वे./२/४९) के भाष्य में की गई है, जो अप्रासंगिक है। इससे सूत्रकार और भाष्यकार का भिन्न होना सूचित होता है। १२. "कायवाङ्मनःकर्म योगः" (६ / १) तथा "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्" (७/१), तत्त्वार्थसूत्र के इन सूत्रों में महाव्रतों को शुभास्रव का हेतु बतलाया गया है। भाष्य में भी इस बात की पुष्टि की गयी है। तथा संवरहेतुओं का वर्णन करनेवाले "स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः" (९/२) सूत्र में महाव्रतों को शामिल न करके भी यह द्योतित किया गया है कि महाव्रत शुभास्रव के हेतु हैं, संवर के नहीं। किन्तु भाष्यकार ने "अनित्याशरणसंसारैकत्वा" इत्यादि सूत्र (९/७) के भाष्य में महाव्रतों को संवर का हेतु बतलाया है। इससे भी सूत्रकार और भाष्यकार के भिन्न होने की पुष्टि होती है। १३. तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ में "कालश्चेत्येके" (५/३८) सूत्र से ध्वनित होता है कि सूत्रकार स्वयं कालद्रव्य को नहीं मानते। किन्तु भाष्यकार ने लोक को कहीं षड्द्रव्यात्मक माना है-'सर्वं षट्त्वं षड्द्रव्यावरोधादिति' (त. सू./ श्वे./१/ ३५) और कहीं पञ्चास्तिकायों का समूह-"पञ्चास्तिकायसमुदायो लोकः" (त.सू./ श्वे./३/६)। सूत्रकार और भाष्यकार के इस मतवैषम्य से सिद्ध है कि वे भिन्नभिन्न व्यक्ति हैं। __१४: तत्त्वार्थसूत्रकार ने बादरसम्पराये सर्वे (त. सू./श्वे./९/१२) सूत्र का कथन कर छठे, सातवें, आठवें और नौवें गुणस्थानों के परीषहों का ज्ञापन किया है, किन्तु भाष्यकार ने उक्त सूत्र को केवल नौवें गुणस्थान में होनेवाले परीषहों का प्रतिपादक माना है। यह मतभेद दोनों के भिन्न व्यक्ति होने का सूचक है। १५. "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः" (त. सू./ ८/२) इस सूत्र में कर्मयोग्यान् इस अल्पाक्षरात्मक समस्त पद का प्रयोग न कर कर्मणो योग्यान् इस बह्वक्षरात्मक असमस्त पद का प्रयोग क्यों किया गया? इसका समाधान सर्वार्थसिद्धिकार ने किया है, भाष्यकार ने नहीं किया। (अध्याय १६ / प्र.१ / शी. ३/३.१)। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रों की रचना उन्होंने नहीं की। यदि सूत्ररचना उन्होंने की होती, तो कर्मणो योग्यान् प्रयोग का रहस्य उन्हें ज्ञात होता और उसका स्पष्टीकरण वे भाष्य में अवश्य करते। ग-श्वेताम्बर भी भाष्यकार से अपरिचित १. विक्रम की १३वीं शती के बाद हुए श्वेताम्बरमुनि श्री रत्नसिंहसूरि ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर टिप्पण लिखे हैं। उनमें उन्होंने भाष्यकार का नाम न देकर उसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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