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________________ १२२ १२४ अन्तस्तत्त्व [ग्यारह] पञ्चम प्रकरण-सामान्य पुरुषों के लिए तीर्थकरलिंग-निषेध मनगढन्त ११७ १. पंचमकाल में सचेललिंग को ही जिनोक्त, उचित और अनिवार्य ठहराने का प्रयास ११७ २. दिगम्बरमत को निह्नवमत (मिथ्यामत) सिद्ध करने की चेष्टा १२० ३. हीनसंहननधारियों को भी तीर्थंकरलिंग-ग्रहण का उपदेश : इसके प्रमाण ३.१. महावीर का उपदेश पंचमकाल के जीवों के लिए भी १२१ ३.२. अचेलकधर्म का उपदेश तीर्थंकरों के लिए नहीं ३.३. आस्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा के हेतु सबके लिए समान १२२ ३.४. पञ्चमकालीन प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतों को भी नाग्न्यपरीषह ३.५. हीनसंहननधारी को भी नग्न होने पर ही शीतादिपरीषह संभव ३.६. आचारांग में अचेलत्व से संयम-शिष्टता की हानि अमान्य, ह्री-कुत्सा-भय-त्याग प्रशंसित । १२५ ३.७. वैराग्यपरिणत ज्ञानी नग्नमुनि का लिंगोत्थान संभव नहीं । १२७ ३.८. नपुंसक बनाये जाने की धारणा हास्यास्पद १२८ ४. दिगम्बरपरम्परा में जिनलिंग आज भी प्रवर्तमान १३२ ५. श्वेताम्बरों का दिगम्बरमत के प्रति आकर्षण षष्ठ प्रकरण-सग्रन्थ के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग इतिहासविरुद्ध १३८ १. दिगम्बरग्रन्थों में 'निर्ग्रन्थ' शब्द 'सर्वथा अचेल' का वाचक १३८ २. अभिलेखों में 'निर्ग्रन्थ' शब्द "दिगम्बर जैन मुनि' का वाचक १४० ३. डॉ० सागरमल जी के मत में परिवर्तन-ईसापूर्व चतुर्थ शती से दिगम्बरसंघ ही 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम से प्रसिद्ध ४. ईसापूर्व चतुर्थ शती से श्वेताम्बरसंघ 'श्वेतपटसंघ' नाम से प्रसिद्ध ५. सम्प्रदायों के नामकरण के आधार : लिंग, देवता एवं तत्त्व ६. स्वसंघ के लिए 'श्वेतपटसंघ' नाम प्रचारित ७. केवल दिगम्बरसंघ का 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम श्वेताम्बरों को भी मान्य १३३ १४५ १४६ १४९ १५० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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