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________________ ग्रन्थसार [एक सौ इकतालीस] पद बिलकुल असंगत है, क्योंकि 'द्विविधोऽवधिः' (१/२१) सूत्र के भाष्य में अवधिज्ञान का दूसरा भेद 'क्षयोपशमनिमित्त' बतलाया है, 'यथोक्तनिमित्त' नहीं। दिगम्बर-तत्त्वार्थसूत्र में "क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषणाम्" (१/२२) ही है। इससे सिद्ध होता है कि सूत्र में क्षयोपशमनिमित्तः के स्थान में यथोक्तनिमित्त: पहले ही किया जा चुका था, भाष्य उसके बाद लिखा गया। इसीलिए सूत्र के अर्थ को युक्तिसंगत बनाने के लिए भाष्यकार को लिखना पड़ा कि यहाँ 'यथोक्तनिमित्त' का अर्थ 'क्षयोपशमनिमित्त' है-'यथोक्तनिमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः' (१/२३)। यदि सूत्रकार ही भाष्यकार होते तो वे सूत्र में ही 'क्षयोपशमनिमित्त' शब्द का प्रयोग करते, जिससे भाष्य में स्पष्टीकरण की आवश्यकता न रहती। यह इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। २. 'इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुः पञ्चपञ्चविंशतिसङ्ख्याः पूर्वस्य भेदाः' (त. सू./६/५), इस सूत्र के दिगम्बरमान्य और श्वेताम्बरमान्य पाठों में तथा सिद्धसेनगणी और हरिभद्रसूरि की टीकाओं में उद्धृतपाठों में इन्द्रिय शब्द पहले और अव्रत शब्द तीसरे स्थान पर है। किन्तु भाष्य में पहले अव्रत की व्याख्या की गयी है, उसके बाद कषाय की, फिर इन्द्रिय की। यह सूत्रक्रमोल्लंघन नाम की असंगति है। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। यदि भाष्य स्वोपज्ञ होता, तो इस क्रमोल्लंघन की विसंगति का प्रसंग न आता। ३."इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंश-पारिषद्यात्मरक्ष-लोकपालानीक-प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विशिकाश्चैकशः" (त. सू./ श्वे./४/४), इस सूत्र में प्रत्येक देवनिकाय में देवों के दश भेद बतलाये गये हैं। भाष्यकार भी पहले दश भेद ही कहते हैं। किन्तु , जब भेदों का वर्णन करते हैं, तब अनीकाधिपति भेद अतिरिक्त बतलाते हैं, जिससे ग्यारह भेद हो जाते हैं। इससे भी सूत्रकार और भाष्यकार की भिन्नता प्रकट होती है। ४."सारस्वत्यादित्य-वह्नयरुण-गर्दतोय-तुषिताव्याबाध-मरुतोऽरिष्टाश्च" (त.सू./ वि.स./४/२६), इस सूत्र में लौकान्तिक देवों के नौ भेद वर्णित किये गये हैं, किन्तु इस सूत्र और पूर्वसूत्र (४/२५) के भाष्य में नामनिर्देश न करते हुए आठ ही भेद होने की सूचना दी है-"एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा---।" (४ / २६)। ५. तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शनी से सम्यग्दृष्टि को भिन्न नहीं माना गया है, भाष्य (१/८) में माना गया है। ६. तत्त्वार्थसूत्र (१/१३) में मति, स्मृति और संज्ञा आदि मतिज्ञान के पर्यायवाची नाम बतलाये गये हैं, किन्तु भाष्य में इन्हें स्वतन्त्र ज्ञान माना गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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