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________________ [एक सौ चालीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ नहीं होती। इसके अतिरिक्त केवलज्ञान हो जाने पर क्षयोपशमजन्य भावेन्द्रियों का अभाव होने जाने से केवली को द्रव्येन्द्रियजन्य पीड़ा हो भी नहीं सकती है और घातिकर्मचतुष्टय का क्षय हो जाने से केवली अनन्त आनन्द का अनुभव करते हैं, अतः उन्हें क्षुधादि की पीड़ा का अनुभव संभव ही नहीं है। फिर मोहनीयकर्म के उदय का अभाव हो जाने से असातावेदनीय का उदय असाता की अनुभूति कराने में समर्थ नहीं रहता। इसके अलावा कवलाहार ग्रहण न करने से केवली की अकालमृत्यु नहीं हो सकती, क्योंकि सूत्रकार ने चरमोत्तमदेहधारी को 'अनपवायु' कहा है। आगम में नोकर्माहार की अपेक्षा सयोगकेवली को आहारक कहा गया है, कवलाहार की अपेक्षा नहीं। नोकर्माहार से ही उनका शरीर आयपर्यन्त स्थित रहता है। चरमोत्तमदेहधारी का अनपवायु होना नोकर्माहार से ही संभव है, कवलाहार से नहीं, क्योंकि कवलाहार के लिए इच्छा और प्रयत्न आवश्यक होते हैं, जिनका केवली में मोहनीयकर्म का क्षय हो जाने से अभाव हो जाता है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार केवलिभुक्ति के निषेधक हैं, जबकि भाष्यकार समर्थक हैं। इससे तथा उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि दोनों के सम्प्रदाय भिन्न-भिन्न हैं। अर्थात् 'तत्त्वार्थसूत्र' दिगम्बराचार्य की कृति है और 'तत्त्वार्थाधिगमभाष्य' श्वेताम्बराचार्य की। ख-सूत्र और भाष्य में विसंगतियाँ इस सिद्धान्तभेद के अतिरिक्त सूत्र और भाष्य में जो विसंगतियाँ हैं, उनसे भी सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों से ताल्लुक रखते हैं। वे विसंगतियाँ इस प्रकार हैं १. दिगम्बर-तत्त्वार्थसूत्र में 'भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्' (१/२१) तथा "क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणम्" (१/२२), इन दो सूत्रों में अवधिज्ञान के दो भेद बतलाये गये हैं : भवप्रत्यय, जो देव और नारकियों के होता है तथा क्षयोपशमनिमित्त, जो शेष जीवों अर्थात् मनुष्य और तिर्यंचों के होता है। इन सूत्रों के पूर्व 'द्विविधोऽवधिः' (अवधिज्ञान के दो भेद हैं) यह प्रस्तावनात्मक सूत्र होना चाहिए था। यह सूत्र श्वेताम्बर-तत्त्वार्थसूत्र (१/२१) में है और उसके भाष्य में स्पष्ट किया गया है कि वे दो भेद हैं : भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्त-"भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्च" (१/२१)। अगले सूत्र में भवप्रत्यय अवधि के स्वामियों का वर्णन किया गया है- "भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्" (१/२२)। यह सूत्र वैसा ही है, जैसा दिगम्बरतत्त्वार्थसूत्र में है। इसके बाद क्षयोपशमनिमित्त अवधि के स्वामियों का वर्णन करने के लिए "क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्" ऐसा सूत्र होना चाहिए था, किन्तु "यथोक्त-निमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्" (१/२३) यह सूत्र है। यहाँ यथोक्तनिमित्तः इस । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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