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[ एक सौ उनतालीस ]
२. सूत्रकार ने शीतादिपरीषहजय एवं नाग्न्यपरीषहजय को संवर- निर्जरा का हेतु कह कर वस्त्रमुक्ति एवं गृहस्थमुक्ति का निषेध किया है, किन्तु भाष्यकार ने इनका प्रतिपादन किया है।
ग्रन्थसार
३. सूत्रकार ने "बादरसाम्पराये सर्वे" (त. सू. /९/१२) सूत्र द्वारा छठे, सातवें, आठवें और नौवें गुणस्थानों में संभाव्य परीषहों का कथन किया है, और उनमें सभी परीषह बतलाये हैं । अतः उनके अनुसार इन गुणस्थानों में नाग्न्य परीषह भी संभव है। इससे फलित होता है कि स्त्री छठे से लेकर नौवें तक किसी भी गुणस्थान में नहीं पहुँच सकती, क्योंकि उसके लिए वस्त्रत्याग असंभव होने से नाग्न्यपरीषह नहीं हो सकता। यह इस बात का सूचक है कि तत्त्वार्थसूत्रकार को स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं है।
सूत्रकार ने 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' (त.सू./९/३७) सूत्र में आदि के दो शुक्लध्यानों के लिए चतुर्दश पूर्वों का ज्ञान आवश्यक बतलाया है। वह श्वेताम्बरमतानुसार भी स्त्रियों को संभव नहीं है, जिससे निर्जरा भी असंभव है। इस तरह सूत्रकार ने स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है । (अध्याय १६ / प्र.१ / शी. १.४) । किन्तु, भाष्यकार का कथन है कि स्त्री मुक्त भी हो सकती है और तीर्थंकरपद भी पा सकती है।
४. सूत्रकार ने मूर्च्छा को परिग्रह कहा है और मूर्च्छा का अर्थ है परद्रव्य की इच्छा और उसमें ममत्व । सूत्रकार ने संवर - निर्जरा के लिए शीत, उष्ण, दंश-मशक, नाग्न्य आदि परिषहों पर विजय आवश्यक बतलायी है, अतः परीषहों से डरकर उनसे बचने के लिए जो वस्त्रादि पदार्थों की इच्छा होती है और उन्हें ग्रहण किया जाता है वह सूत्रकार के अनुसार परिग्रह है। इसके विपरीत भाष्यकार मानते हैं कि साधु के द्वारा गृहीत वस्त्र आदि संयम के उपकरण हैं, परिग्रह नहीं । (अध्याय १६ / प्र.१/ शी. १.५)।
५. सूत्रकार ने दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम के अनुसार तीर्थंकरप्रकृति के बन्धहेतुओं की संख्या सोलह बतलायी है, जबकि श्वेताम्बर - आगम 'ज्ञाताधर्मकथांग' में बीस हेतु बताये गये हैं । अतः सूत्रकार दिगम्बरपरम्परा के हैं । किन्तु, भाष्यकार सवस्त्रमुक्ति आदि के समर्थक होने से श्वेताम्बर हैं ।
६. तत्त्वार्थसूत्र में केवली को क्षुधादि - परीषह होने का वर्णन तो है, किन्तु वे कवलाहार ग्रहण करते हैं, यह नहीं कहा गया है, जैसे षष्ठादि गुणस्थानों में पुरुषवेद का उदय होने पर भी यह उपेदश नहीं है कि मुनि कामसेवन करते हैं। उन्हें संयत ही कहा गया है। तथा आर्त्तध्यान की उत्पत्ति प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही बतलायी गयी है, जिसका तात्पर्य यह है कि तेरहवें गुणस्थानवाले केवली को क्षुधादिजन्य वेदना
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