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[एक सौ अड़तीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ भी कुन्दकुन्द के ही ग्रन्थ हैं। मूलाचार में कुन्दकुन्द की निरूपणशैली भी अपनायी गयी है।
९. मूलाचार को पूज्यपाद, यतिवृषभ और वीरसेन जैसे दिगम्बराचार्यों ने प्रमाण माना है, जब कि वे यापनीयों को जैनाभास और उनके द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं को भी अपूज्य मानते थे।
१०. मूलाचार पर दिगम्बर आचार्यों और पण्डितों ने ही टीकाएँ एवं भाषावचनिका लिखी हैं, किसी श्वेताम्बर या यापनीय आचार्य ने नहीं। अध्याय १६-तत्त्वार्थसूत्र
दिगम्बरग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र को पं० सुखलाल जी संघवी आदि श्वेताम्बर विद्वानों ने श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। किन्तु डॉ० सागरमल जी तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को, न तो दिगम्बर मानते हैं, न श्वेताम्बर, न यापनीय। वे उन्हें उस स्वबुद्धिकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का मानते हैं, जिससे, उनके अनुसार, श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का जन्म हुआ था। दूसरी ओर पं० नाथूराम जी प्रेमी ने तत्त्वार्थसूत्र को यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ बतलाया है।
पं० सुखलाल जी संघवी ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर-ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु विन्यस्त किये हैं, वे सब हेत्वाभास हैं। उनका निरसन करनेवाले प्रमाण नीचे द्रष्टव्य हैंक-सूत्रकार-भाष्यकार में सम्प्रदायभेद
१. हेतु-तत्त्वार्थसूत्र और उस पर लिखे गये भाष्य, दोनों के कर्ता उमास्वाति हैं। चूँकि भाष्य में मुनियों के लिए वस्त्रपात्रादि को संयम का साधन बतलाया गया है, इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार श्वेताम्बराचार्य थे।
निरसन-सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के व्यक्ति थे। सूत्रकार दिगम्बर थे, भाष्यकार श्वेताम्बर। यह निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध होता है
१. सूत्रकार ने नाग्न्यलिंगरूप सुलिंगधारी (नाग्न्य-परीषहजयी) सम्यग्दृष्टि (जिनोपदेश-श्रद्धालु) को ही मुक्ति का पात्र बतलाया है (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः–त. सू. १ / १), जब कि भाष्यकार अन्यलिंगरूप कुलिंगधारी को भी मुक्ति का पात्र मानते हैं। (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / १० /७ / पृ.४४८)।
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