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ग्रन्थसार
[एक सौ सैंतीस] निरसन-मूलाचार में स्त्रियों के लिए सवस्त्र औपचारिक दीक्षा का विधान है। कुन्दकुन्द ने भी उनके लिए सवस्त्र दीक्षा देय बतलायी है। निर्वाणयोग्य पारमार्थिक नाग्न्यदीक्षा का निषेध कुन्दकुन्द और वट्टकेर दोनों ने किया है, क्योंकि स्त्रियों का निर्वाण संभव नहीं है। अतः मूलाचार कुन्दकुन्द की ही परम्परा का ग्रन्थ है।
इस तरह वे सभी हेतु निरस्त हो जाते हैं, जो पं० नाथूराम जी प्रेमी आदि विद्वानों ने मूलाचार को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए उपस्थित किये हैं। अब वे प्रमाण दर्शनीय हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि मूलाचार दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। वे इस प्रकार हैं
१. जिस समय मूलाचार की रचना हुई थी, उस समय यापनीय-सम्प्रदाय का जन्म ही नहीं हुआ था। मूलाचार का रचनाकाल ईसा की प्रथम शती का उत्तरार्ध है, जब कि यापनीय-सम्प्रदाय का उदय पाँचवीं शती ई० के प्रारंभ में हुआ था।
२. मूलाचार में आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति का निषेध किया गया है, जब कि ये यापनीयपरम्परा के आधारभूत सिद्धान्त हैं।
३. मूलाचार में मुनि के २८ मूलगुणों और अनेक उत्तरगुणों का विधान है। यापनीयमत में ये दोनों प्रकार के गुण मान्य नहीं हैं।
४. मूलाचार में समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को परिग्रह कहा गया है। यापनीयमत स्थविरकल्पियों (सवस्त्रमुनियों), स्त्रियों, गृहस्थों और अन्यलिंगियों की मुक्ति मानने से, न बाह्यपरिग्रह को परिग्रह मानता है, न आभ्यन्तर परिग्रह को।
५. मूलाचार में माना गया है कि मोक्षमार्गरूप रत्नत्रय का विकास गुणस्थानक्रम से होता है और पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है। यापनीयपरम्परा ऐसा नहीं मानती, क्योंकि उसमें मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में स्थित अन्यलिंगी साधु भी मुक्ति का पात्र माना गया है।
६. मूलाचार में कल्प नामक स्वर्गों की संख्या सोलह बतलायी गयी है और नौ अनुदिश नामक स्वर्ग भी माने गये हैं, जब कि यापनीयमत के अनुसार कल्प बारह हैं और अनुदिश नामक स्वर्गों का अस्तित्व नहीं है।
७. मूलाचार में वेदत्रय स्वीकार किया गया है, जो यापनीयों को स्वीकार्य नहीं है।
८. मूलाचार में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से अनेक गाथाएँ ग्रहण की गयी हैं, मुनि के २८ मूलगुणों का भी प्रवचनसार से अनुकरण किया गया है, सवस्त्रमुक्ति एवं स्त्रीमुक्ति के निषेध तथा स्त्री की औपचारिक दीक्षा के प्रतिपादन के आधार
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