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[एक सौ छत्तीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ के आचार एवं जीत तथा कल्प नामक प्रायश्चित्तों के नाम हैं। (अध्याय १५ / प्र.२/ शी. ८)।
९. हेतु-मूलाचार (गा. २७७-७८-७९) में अस्वाध्यायकाल में पठनीय आराधनानियुक्ति, मरणविभक्ति आदि छह श्वेताम्बरग्रन्थों का उल्लेख है।
निरसन-अस्वाध्यायकाल में पठनीय ये सभी ग्रन्थ दिगम्बरग्रन्थ हैं, क्योंकि मूलाचार में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, अतः उसमें अस्वाध्याय- काल में दिगम्बरग्रन्थों को ही पढ़ने का उपदेश दिया जा सकता है। (अध्याय १५/ प्र.२ / शी.९)।
१०. हेतु-मूलाचार में श्वेताम्बरग्रन्थ आवश्यकनियुक्ति की लगभग ८० गाथाएँ मिलती हैं। इससे सूचित होता है कि उसकी रचना आवश्यकनियुक्ति के आधार पर
निरसन-मूलाचार का रचनाकाल ईसा की प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध है और आवश्यकनियुक्ति की रचना छठी शती ई० (वि० सं० ५६२) में हुई थी। अतः मूलाचार की रचना आवश्यकनियुक्ति के आधार पर नहीं हो सकती। वस्तुतः वे गाथाएँ मूलाचार से आवश्यकनियुक्ति में पहुँची हैं।
११. हेतु-मूलाचार कुन्दकुन्दकृत तो है ही नहीं, उनकी विचारपरम्परा का भी नहीं हैं।
निरसन-निम्नलिखित प्रमाण इसे कुन्दकुन्द की परम्परा का सिद्ध करते हैं
क-कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यतीर्थिक-मुक्ति का घोर विरोध किया है। इन चारों की मुक्ति का विरोध मूलाचार में भी किया गया है।
ख–कुन्दकुन्द ने मुनि के जिन २८ मूलगुणों का उल्लेख किया है, उनका मूलाचार में भी ज्यों का त्यों वर्णन मिलता है।
ग-कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ मूलाचार में मिलती हैं।
घ-कुन्दकुन्द की निरूपणशैली का प्रभाव भी मूलाचार के कर्ता पर दृष्टिगोचर होता है। (अध्याय १५ / प्र. २ / शी.११)।
१२. हेतु-डॉ० सागरमल जी का कथन है कि मूलाचार में स्त्रीदीक्षा का विधान है, जब कि कुन्दकुन्द ने स्त्रीप्रव्रज्या का निषेध किया है। अतः वह कुन्दकुन्द की परम्परा का ग्रन्थ न होकर यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है।
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