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[एक सौ चौंतीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ वकालत की है, एक-दो नये हेतु भी ईजाद किये हैं। यहाँ सर्वप्रथम पं० नाथूराम जी प्रेमी द्वारा प्रस्तुत हेतुओं का प्रदर्शन एवं उनका निरसन करनेवाले प्रमाण उपस्थित किये जा रहे हैं
१. हेतु-मूलाचार में मुनियों के लिए विरत और आर्यिकाओं के लिए विरती शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थकर्ता मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं। यह मूलाचार के यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ होने का लक्षण है।
निरसन-आचार्य कुन्दकुन्द ने भी मुनियों को श्रमण और आर्यिकाओं को श्रमणी शब्द से अभिहित किया है, और मूलाचार के टीकाकार आचार्य वसुनन्दी ने भी मुनियों के लिए संयत और आर्यिका के लिए संयती विशेषणों का प्रयोग किया है। ये 'श्रमणी'
और 'संयती' शब्द 'विरती' के पर्यायवाची हैं। पर इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ये दोनों आचार्य मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं, क्योंकि ये दोनों दिगम्बर हैं। अतः 'विरत' और 'विरती' शब्दों से अभिहित करना मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखने का प्रमाण नहीं है। (अध्याय १५/प्र.२ / शी.१)। इसके अतिरिक्त मूलाचार में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि सोलहवें स्वर्ग से ऊपर निर्ग्रन्थलिंगधारी ही जन्म ले सकता है। यह स्त्रीमुक्तिनिषेध का दो-टूक प्रमाण है। अतः मूलाचार को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ मानना प्रमाणविरुद्ध है। (अध्याय १५/ प्र.१/शी.३)।
२. हेतु-चौथे सामाचार अधिकार (मूलाचार / गा. १८७) में कहा गया है कि अभी तक कहा हुआ यह सामाचार आर्यिकाओं के लिए भी यथायोग्य जानना। इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थकर्ता मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं।
निरसन-यथायोग्य शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि ग्रन्थकार सामाचार के पालन में मुनि और आर्यिका की योग्यता को समान नहीं मानते। इसलिए सामाचार भी समानरूप से नहीं, अपितु योग्यतानुसार पालनीय बतलाया है। २८ मूलगुणों के पालन में भी उन्होंने समानता की अपेक्षा नहीं की है, क्योंकि आर्यिकाओं के लिए आचेलक्यादि संभव नहीं हैं। तथा उन्होंने सोलहवें स्वर्ग से ऊपर स्त्री के उपपाद का निषेध किया है। इससे सिद्ध है कि ग्रन्थकार मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में नहीं रखते। (अध्याय १५ / प्र. २ / शी. २)।
.. ३. हेतु-१९६ वीं गाथा में कहा है कि इस प्रकार की चर्या जो मुनि और आर्यिकाएँ करती हैं, वे जगत्पूजा, कीर्ति और सुख प्राप्त करके सिद्ध होती हैं। यह स्त्रीशरीर से मुक्ति का प्रतिपादन है।
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