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ग्रन्थसार
[एक सौ तेंतीस] ६. तीर्थंकरों का अचेललिंग ही मोक्ष का एकमात्र मार्ग तथा सभी मोक्षार्थियों के लिए नियम से ग्राह्य बतलाया गया है। यह यापनीयमत की सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति की मान्यताओं के विरुद्ध है।
७. पुरुषशरीर को ही संयम का साधन कहा गया है, जो यापनीयों की स्त्रीमुक्ति की मान्यता का विरोधी है।
८. वस्त्रादिपरिग्रह से युक्त मनुष्य को संयतगुणस्थान की प्राप्ति के अयोग्य निरूपित किया गया है। यह भी सवस्त्रमुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं के प्रतिकूल है।
९. क्षुधापरीषह और भोजन की आकांक्षा प्रमत्तसंयत-गुणस्थान तक ही बतलायी गयी है। इससे यापनीयों की केवलिभुक्ति की मान्यता का निषेध होता है।
१०. बन्ध और मोक्ष की सम्पूर्ण व्यवस्था गुणस्थान-केन्द्रित दर्शायी गयी है, जो यापनीयों की मोक्ष-व्यवस्था के विरुद्ध है।
११. साधुओं के मूलगुणों और उत्तरगुणों का वर्णन दिगम्बर-परम्परा के अनुरूप
१२. वेदत्रय और वेदवैषम्य स्वीकार किय गये हैं, जो यापनीयों को अस्वीकार्य
१३. साधु के लिए केशलुञ्च अनिवार्य बतलाया गया है। यापनीयमान्य श्वेताम्बरकल्पसूत्र में छुरे-कैंची से भी मुण्डन कराने की छूट है।
१४. साधु के लिए आहार में मांस, मधु और मद्य के ग्रहण का कठोरतापूर्वक निषेध है। यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगमों में उन्हें अपवादरूप से ग्रहण करने की अनुमति दी गई है।
१५. विजयोदया में कालद्रव्य का अस्तित्व माना गया है। यह मान्यता यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगमों के विपरीत है।
१६. विजयोदया में वर्णित चार अनुयोगों के नाम दिगम्बरपरम्परा के अनुरूप एवं श्वेताम्बरपरम्परा के विरुद्ध हैं। अध्याय १५-मूलाचार
मूलाचार को भी यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ माननेवाले पहले विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी हैं। फिर श्रीमती डॉ० पटोरिया ने उनकी बात आँख मींचकर मान ली। इन दोनों के विचारों से तो डॉ० सागरमल जी को अच्छा मसाला मिल गया और उन्होंने प्रेमी जी के ही हेतुओं को बढ़ा-चढ़ाकर मूलाचार के यापनीयग्रन्थ होने की जोरदार
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