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________________ [ एक सौ बत्तीस ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्यों में उपलब्ध नहीं है, केवल तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में है, जिसकी आलोचना सिद्धसेनगणी ने की । इससे फलित होता है कि अपराजितसूरि यापनीय थे। निरसन - उक्त प्रकृतियों को धवला और जयधवला टीकाओं में पुण्यप्रकृति सिद्ध किया गया है, जो दिगम्बरग्रन्थ हैं। अतः विजयोदयाटीका में उन्हें पुण्यप्रकृति कहे जाने से अपराजितसूरि यापनीय सिद्ध नहीं होते। तथा जैसे तत्त्वार्थाधिगमभाष्य-कार उमास्वाति उन्हें पुण्यप्रकृति कहने से यापनीय नहीं कहला सकते, वैसे ही अपराजितसूरि भी नहीं कहला सकते। (अध्याय १४ / प्र.२ / शी. ११) । १२. हेतु - ( श्रीमती पटोरिया) - विजयोदयाटीका में शुक्लध्यान के प्रथमभेद 'पृथक्त्व - वितर्क - सवीचार' ध्यान का अधिकारी 'उपशान्तमोह' नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती को माना गया है, यह अपराजितसूरि के यापनीयमतावलम्बी होने का लक्षण है । निरसन - प्रथम तो यापनीयमत में गुणस्थान - सिद्धान्त मान्य ही नहीं है, दूसरे दिगम्बराचार्य वीरसेनस्वामी ने भी उपशान्तमोह - गुणस्थान में ही प्रथम शुक्लध्यान होना माना है। (धवला / ष .खं./पु.१३ / ५,४,२६ / पृ.७४, ७८) । अतः इस मान्यता से यह सिद्ध नहीं होता कि अपराजितसूरि यापनीय थे। इस प्रकार अपराजितसूरि को यापनीय - आचार्य सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये सभी हेतु निरस्त हो जाते हैं। अब वे हेतु सामने रखे जा रहे हैं, जिनसे साबित होता है कि अपराजितसूरि पक्के दिगम्बर थे १. उन्होंने विजयोदयाटीका में ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जिनसे आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगिमुक्ति और केवलिभुक्ति इन यापनीय-मान्यताओं का निषेध होता है। २. टीका में कहा गया है कि सचेल अपवादलिंग मोक्ष का उपाय नहीं है । वह परिग्रहधारी गृहस्थों का लिंग है, अतः उसका अंगीकार मुनियों को निन्दा का पात्र बनाता है। ३. इसमें प्रतिपादित अपरिग्रहमहाव्रत का लक्षण यापनीय मान्यताओं का विरोधी है। ४. इसमें विधान किया गया है कि अचेल को ही महाव्रत प्रदान किये जाने चाहिए। ५. इसमें अचेल को ही निर्ग्रन्थ कहा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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