SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थसार [एक सौ इकतीस] ६. हेतु-(डॉ० सागरमल जी)-यापनीय-क्राणूगण के जटासिंहनन्दी द्वारा रचित वरांगचरित से विजयोदयाटीका में कुछ श्लोक उद्धृत किये गये हैं, इससे सिद्ध होता है कि अपराजितसूरि भी यापनीय थे। निरसन-क्राणूगण दिगम्बरसंघ का गण था, यापनीयसंघ में कण्डूगण था। अतः जटासिंहनन्दी दिगम्बर ही थे, इसलिए अपराजितसूरि भी दिगम्बर ही थे। ७. हेतु-(डॉ० सागरमल जी)-विजयोदयाटीका में रात्रिभोजन-त्याग को छठा व्रत कहा जाना यही प्रमाणित करता है कि वह यापनीय-कृति है। निरसन-विजयोदयाटीका दिगम्बराचार्यकृत है तथा सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि दिगम्बर-परम्परा के अन्य ग्रन्थों में भी रात्रिभोजनत्याग को छठे व्रत के रूप में वर्णित किया गया है। अतः विजयोदयाटीका यापनीयकृति नहीं है। ८. हेतु-(डॉ० सागरमल जी)-विजयोदयाटीका में श्वेताम्बरसाहित्य में वर्णित अथालन्दसंयम, जिनकल्प, परिहारसंयम, विजहना आदि का उल्लेख है, जिससे अपराजितसूरि के यापनीय होने की पुष्टि होती है। निरसन-विजयोदयाटीका में दिगम्बरमान्य अथालन्दसंयमादि का वर्णन है, श्वेताम्बरमान्य का नहीं, अतः अपराजितसूरि दिगम्बर ही हैं। (अध्याय १४ / प्र.२ / शी.८)। ९. हेतु-(डॉ० सागरमल जी)-विजयोदया में वर्णित भिक्षुप्रतिमाओं का उल्लेख किसी दिगम्बरग्रन्थ में नहीं है। निरसन-अपराजितसूरि ने भगवती-आराधना (गा. 'सदि आउगे सदि' २५१) में वर्णित भिक्षुप्रतिमाओं की टीका मात्र की है, उनका अपनी तरफ से उल्लेख नहीं किया। तथा भगवती-आराधना दिगम्बरग्रन्थ ही है। अतः अपराजितसूरि यापनीय सिद्ध नहीं होते। १०. हेतु-(डॉ० सागरमल जी)-विजयोदयाटीका में मुनि का सात घरों से भिक्षा लाने का वर्णन दिगम्बरमतानुकूल नहीं है। __निरसन-यदि एक घर में जाने पर भिक्षा प्राप्त न हो, तो दूसरे घर में जाना और दूसरे में प्राप्त न हो, तो तीसरे में जाना, इस प्रकार छह घरों में भिक्षा प्राप्त न होने पर सातवें घर में जाना, उससे आगे न जाना, ऐसे वृत्तिपरिसंख्यान तप का वर्णन विजयोदयाटीका में किया गया है। यह दिगम्बरमत के अनुकूल ही है। ११. हेतु-(डॉ. सागरमल जी)-विजयोदयाटीका में सद्वेद्य, सम्यक्त्व, हास्य, पुरुषवेद, शुभनाम, शुभगोत्र एवं शुभ-आयु को पुण्यप्रकृति कहा गया है। यह कथन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy