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[एक सौ तीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ २. हेतु-(प्रेमी जी)-अपराजितसूरि ने मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग स्वीकार किया है, यह उनके यापनीय होने का लक्षण है।
निरसन-अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों में मुनि के लिए परिस्थितिविशेष में दी गई वस्त्रपात्रादिग्रहण की अनुमति को कारणसापेक्ष कहकर मुक्ति के लिए वस्त्रपात्रादि को परित्याज्य बतलाया है और कहा है कि वस्त्र-पात्रधारी संयत नहीं होता, अचेल ही मुक्ति का पात्र होता है। इससे सिद्ध है कि उन्हें सचेल अपवादलिंग स्वीकार्य नहीं था।
३. हेतु-(प्रेमी जी)-अपराजितसूरि के यापनीय होने का सबसे स्पष्ट प्रमाण यह है कि उन्होंने श्वेताम्बरग्रन्थ दशवकालिकसूत्र पर टीका लिखी थी और उसका भी नाम विजयोदया था।
निरसन-दिगम्बरपरम्परा में भी दशवकालिकसूत्र था। भगवती-आराधना की विजयोदयाटीका में व्यक्त किये गये विचारों से सिद्ध है कि अपराजितसूरि पक्के दिगम्बर थे, अतः उन्होंने दिगम्बरीय दशवैकालिकसूत्र पर ही टीका लिखी होगी। वर्तमान में श्वेताम्बर-दिगम्बर-यापनीय किसी भी सम्प्रदाय के साहित्य में उक्त ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। (अध्याय १४/प्र.२ / शी.५)।
४. हेतु-(प्रेमी जी)-अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में अपने को चन्द्रनन्दी महाप्रकृत्याचार्य का प्रशिष्य कहा है। गङ्गवंशी पृथुवीकोङ्गणि महाराज के शक सं० ६९८ (वि० सं०८३३) के दानपत्र में श्रीमूल-मूलगणाभिनन्दित नन्दिसंघ (यापनीय नन्दिसंघ) के चन्द्रनन्दी आचार्य का उल्लेख है। अपराजितसूरि इन्हीं के प्रशिष्य रहे होंगे। अतः वे यापनीय थे।
निरसन-अपराजितसूरि ने अपनी विजयोदयाटीका में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, इससे सिद्ध है कि वे दिगम्बराचार्य थे। अतः जिन चन्द्रनन्दी के वे प्रशिष्य थे, उन्हें यापनीयसम्प्रदाय का चन्द्रनन्दी मानना प्रमाणबाधित है।
५. हेतु-(श्रीमती पटोरिया)-अरहन्त-अवर्णवाद के अवसर पर दिगम्बरग्रन्थों में केवलि-कवलाहार का उदाहरण दिया जाता है, वह विजयोदयाटीका में नहीं है। इस अनुल्लेख से वे यापनीय प्रतीत होते हैं।
निरसन-"प्रमत्तसंयतस्य परीषहाकुलस्य भक्ष्यपानादिषु कांक्षा सम्भवति"अर्थात् प्रमत्तसंयत-गुणस्थान में ही मुनि को क्षुधापरीषह और भक्तपान की आकांक्षा होती है। (वि.टी./ भा. आ./गा. 'सम्मत्तादीचारा' ४३)। इस कथन से अपराजितसूरि ने केवलिकवलाहार का निषेध किया है, इससे सिद्ध है कि वे दिगम्बराचार्य थे।
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