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________________ [एक सौ अट्ठाईस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ योग्य है। जैसे मेरु आदि पर्वतों पर विराजमान जिनप्रतिमाएँ अचेल होती हैं और तीर्थंकरों के मार्ग के अनुयायी गणधर अचेल होते हैं, वैसे ही उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं। (अध्याय १४ / प्र.२ / शी.२.५)। अपराजितसूरि ने आचारांग के वचनों को भी सदोष और अयुक्तिमत् बतलाया है। 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा (४२३) की टीका में आचारांग का एक उद्धरण देकर शंका उठायी है कि सूत्र (आगम) में पात्र की प्रतिष्ठापना बतलायी गयी है, अतः संयम के लिए पात्र का ग्रहण किया जाना सिद्ध होता है। अपराजितसूरि ने इसका निरसन किया है। वे कहते हैं-"नहीं, अचेलता का अर्थ है परिग्रह का त्याग और पात्र परिग्रह है, अतः उसका भी त्याग सिद्ध ही है।" (वि.टी./भ.आ. / गा.४२३ / पृ. ३२५)। इसी प्रकार सूरि जी ने भावना (आचारांगसूत्र के २४ वें अध्ययन) का एक उद्धरण दिया है, जिसमें कहा गया है कि भगवान् महावीर ने एक वर्ष तक देवदूष्य वस्त्र धारण किया, उसके बाद अचेलक हो गये। उद्धरण देकर इस मत का भी निरसन किया है। वे कहते हैं-"भावना में जो यह कहा गया है कि भगवान् महावीर एक वर्ष तक वस्त्रधारी रहे, उसके बाद अचेलक हो गये, वह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इस विषय में अनेक मतभेद हैं।" (वि. टी./ भ. आ. / गा. ४२३ / पृ. ३२५)। अपराजितसूरि के इन वचनों से सिद्ध है कि उन्हें श्वेताम्बर-आगमों का प्रामाण्य स्वीकार्य नहीं है। अतः 'वे श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे,' इससे बड़ा मिथ्या कथन और कोई हो ही नहीं सकता। अपराजितसूरि ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि श्वेताम्बर-आगमों में भी मुनि के लिए अचेलता का ही विधान है। अतः उनमें भिक्षु के लिए जो चेलधारण करने की अनुमति दी गयी है, उसके बारे में उनका कथन है कि वह कारणविशेष के होने पर ही दी गयी है, अर्थात् यदि नग्न रहने में लज्जा का अनुभव होता हो या पुरुषचिह्न विकृत हो अथवा शीतादिपरीषह असह्य हों, तो भिक्षु वस्त्र धारण कर सकता है। किन्तु, इन कारणों से धारण किये गये वस्त्रपात्रदि को उन्होंने परिग्रह ही माना है और उसे अन्ततः परित्याज्य बतलाया है। इसलिए श्वेताम्बरों ने जो यह मान लिया है कि आचारांगादि में कारणविशेष से वस्त्रपात्रादि-ग्रहण की अनुमति होने से वे त्याज्य नहीं हैं, उसका अपराजितसूरि ने निषेध किया है और उन्हें त्याज्य प्ररूपित किया है तथा इसी को (कारणविशेष से ग्रहण किये जानेवाले और मोक्ष के लिए त्याज्य माने जानेवाले वस्त्रपात्रादि के ग्रहण को) उन्होंने कारणसापेक्ष-वस्त्रपात्रादि-ग्रहण कहा है। यथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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