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ग्रन्थसार
[एक सौ सत्ताईस] ख-"सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो मया तु पातकेन वस्त्र-पात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृहीत इत्यन्तःसन्तापो निन्दा" = सकल परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है, किन्तु मुझ पापी ने परीषहों के डर से वस्त्रपात्रादि परिग्रह ग्रहण किया है, इस प्रकार मन में पश्चात्ताप करने को निन्दा कहते हैं। (वि.टी./ भ.आ. / गा. 'अववादियलिंग' ८६)।
ग-"नैव संयतो भवतीति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः" = मात्र वस्त्रत्याग करने से मनुष्य संयत (मुनि) नहीं होता, शेष परिग्रह का भी त्याग आवश्यक है। (वि.टी. / भ. आ. / गा.'ण य होदि संजदो' १११८)।
इन वचनों के द्वारा अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों में अनुमत सवस्त्रमुक्ति को उच्च स्वर में अमान्य किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने भगवती-आराधना की 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा (४२३) की टीका में अचेलत्व को ही एकमात्र जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग सिद्ध करने के लिए श्वेताम्बरमान्य सचेलत्व पर जबरदस्त प्रहार किया है। उसमें ऐसे अठारह दोष बतलाये हैं, जो मोक्षविरोधी हैं। श्वेताम्बरग्रन्थों में सचेलत्व को मोक्षमार्ग सिद्ध करने के लिए जो-जो तर्क दिये गये हैं, उनमें से एक-एक को लेकर अपराजितसूरि ने उन्हें मोक्ष-विरोधी सिद्ध किया है। विशेषावश्यकभाष्य में सचेललिंग को मोक्ष का मार्ग कहा गया है, अपराजितसूरि ने उसे मोक्ष का अनुपाय सिद्ध किया है। विशेषावश्यकभाष्य में वस्त्रपात्रादि-परिग्रह को संयमोपकारी बतलाया गया है, अपराजितसूरि ने उसे संयम की शुद्धि में बाधक सिद्ध किया है। विशेषावश्यकभाष्य में वस्त्रपात्रादि परिग्रह के मूर्छाहेतुत्व का निषेध किया गया है, अपराजितसूरि ने उसे मूर्छा का हेतु प्रतिपादित किया है। विशेषावश्यकभाष्य में वस्त्रपात्रादि के कषायहेतुत्व को स्वीकार करते हुए भी उन्हें अग्रन्थ कहा गया है, अपराजितसूरि कहते हैं कि शरीर को वस्त्र से परिवेष्टित रखनेवाला यदि अपने को निर्ग्रन्थ कहे, तो अन्यमतावलम्बी भी निर्ग्रन्थ सिद्ध होंगे। विशेषावश्यकभाष्यकार कहते हैं कि नग्न रहने पर स्त्रियों के दर्शन से यदि लिंगोत्थान हो जाता है, तो वह लोगों की दृष्टि में आ जाने से लज्जा का कारण बन जाता है, अपराजितसूरि का कथन है कि वस्त्रधारण करने से मुनि को अपने कामविकार को छिपाने का अवसर मिल जाता है, जिससे वह निर्भय होकर मानसिक कामसेवन करता है। इसके विपरीत नग्न मुनि को इन्द्रियनिग्रह में उसी प्रकार अत्यन्त सावधान रहता पड़ता है, जैसे सर्यों से भरे वन में यात्रा करते हुए विद्यामन्त्रादि से रहित मनुष्य को। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि तीर्थंकरों का अचेललिंग शिष्यों के लिए अनुकरणीय नहीं है, क्योंकि वे उसके योग्य नहीं होते। अपराजितसूरि कहते हैं कि तीर्थंकर मोक्ष के अभिलाषी थे और मोक्ष के उपाय को जानते थे, इसलिए उन्होंने जिस लिंग को धारण किया था, वही समस्त मोक्षार्थियों के लिए धारण करने
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