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________________ [ एक सौ छब्बीस ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ एक दीर्घकालीन मिथ्या धारणा का निराकरण - भगवती - आराधना के अध्याय में प्रसंगवश एक दीर्घकालीन मिथ्या धारणा का निराकरण किया गया है। प्रायः सभी विद्वानों, मुनियों एवं आर्यिकाओं की धारणा है कि भगवती - आराधना में भक्तप्रत्याख्यान (सल्लेखना में संस्तरारूढ़ होने) के समय आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए भी मुनि के समान नाग्न्यलिंग ग्रहण करने का विधान किया गया है। किन्तु यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। उक्त अवसर पर उनके लिए स्त्रियों का उत्सर्गलिंग ग्राह्य बतलाया गया है, जो कि एक साड़ीरूप अल्पपरिग्रहात्मक प्ररूपित किया गया है। आर्यिकाओं का नित्यलिंग भी यही एकसाड़ीरूप उत्सर्गलिंग होता है और भक्तप्रत्याख्यानकाल में भी यही निर्धारित किया गया है। किन्तु श्राविकाओं के लिए योग्यता और परिस्थिति के अनुसार बहुवस्त्रात्मक अपवादलिंग का भी विधान है और आर्यिकावत् एकवस्त्रात्मक उत्सर्गलिंग का भी। इस प्रकार भक्तप्रत्याख्यानकाल में उनके लिए नाग्न्यलिंग का विधान कदापि नहीं है । (अध्याय १३ / प्र.३) । अध्याय १४ - - अपराजितसूरि दिगम्बराचार्य पं० नाथूराम जी प्रेमी ने भगवती आराधना की विजयोदयाटीका के कर्त्ता अपराजित सूरि को भी यापनीयसंघी माना है । श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने उनका अनुसरण किया है, साथ ही अपराजितसूरि को यापनीय - आचार्य सिद्ध करने के लिये कुछ नये हेतु भी जोड़े हैं। डॉ० सागरमल जी ने इन दोनों के पदचिह्नों पर चलते हुए हेतुओं में कुछ और वृद्धि की है। किन्तु ये सभी हेतु असत्य हैं। उनका निरसन करनेवाले प्रमाण इस प्रकार हैं - १. हेतु — (प्रेमी जी) – अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर - आगमों से उद्धरण देकर स्पष्ट किया है कि उनमें भी अचेलता को ही मुनि का लिंग बतलाया गया है, मात्र विशेष परिस्थितियों में वस्त्रग्रहण की अनुमति दी गयी है। इससे पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अपराजितसूरि श्वेताम्बर - आगमों को प्रमाण मानते हैं, इसलिए यापनीय र - सम्प्रदाय के हैं। निरसन – यदि अपराजितसूरि श्वेताम्बर - आगमों को प्रमाण मानते, तो उनमें जो सचेललिंग से मुक्ति का विधान किया गया है, उसका निषेध न करते । किन्तु उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है क - " मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् "= मुक्ति का इच्छुक मुनि वस्त्रग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मुक्ति का उपाय नहीं है । (वि.टी. /भ.आ./ गा. 'जिणपडिरूवं' ८४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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