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ग्रन्थसार
[एक सौ पच्चीस] ग-श्रावक के लिंग को अपवादलिंग नाम देते हुए कहा गया है कि वस्त्रादिपरिग्रह का त्याग करने पर ही वह मुक्ति का पात्र होता है। इस तरह सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति एवं परतीर्थिकमुक्ति का निषेध किया गया है।
घ-वस्त्रादि समस्त परिग्रह के त्याग को संयत-गुणस्थान की प्राप्ति का उपाय तथा पुरुषशरीर को ही संयम का साधन प्ररूपित कर स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया है।
ङ–केवली भगवान् के वर्णन प्रसंग में केवल उनके विहार का वर्णन है, आहारनीहार का नहीं। (भ.आ./गा.२०९४-२११६) ।
२. वस्त्रपात्रादि को भी परिग्रह कहा गया है, जो यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयमत में सवस्त्र-अपवादलिंगधारी स्थविरकल्पी साधुओं, गृहस्थों, परतीर्थिकों और स्त्रियों को भी मुक्ति का पात्र माना गया है।
३. वेदत्रय और वेदवैषम्य स्वीकार किय गये हैं, जो यापनीयों को अमान्य हैं।
४. बन्ध और मोक्ष की सम्पूर्ण व्यवस्था गुणस्थानाश्रित बतलायी गयी है। यह यापनीयमत में स्वीकृत गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं द्रव्य-स्त्रीमुक्ति के विरुद्ध है।
५. मुनि के लिए दिगम्बरमत में मान्य मूलगुणों और उत्तरगुणों का विधान किया गया है।
६. लुञ्चन के द्वारा ही केशत्याग का नियम निर्धारित किया गया है। यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगमों में छुरे या कैंची से भी मुण्डन की अनुमति दी गयी है।
७. आहार में मद्य, मांस और मधु के ग्रहण का सर्वथा निषेध किया गया है, जब कि यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगमों में वे अपवादरूप से ग्राह्य माने गये हैं।
८. भगवती-आराधना में मुनियों के लिए अभिग्रह का विधान किया गया है। यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगमों में इसका अभाव है।
९. भगवती-आराधना में कुन्दकुन्द का अनुसरण किया गया है। १०. इसकी सभी टीकाएँ दिगम्बरों द्वारा ही लिखी गयी हैं।
११. भगवती-आराधना को दिगम्बराचार्यों ने प्रमाणरूप में स्वीकार किया है और उसके कर्ता शिवार्य के प्रति आदरभाव व्यक्त किया है।
१२. भगवती-आराधना की रचना यापनीयसंघ की उत्पत्ति से चार सौ वर्ष पहले हो चुकी थी।
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