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________________ [एक सौ चौबीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ निरसन-टीका में श्वेताम्बरग्रन्थ का उल्लेख होने से मूलग्रन्थ यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। १५. हेतु-भगवती-आराधना की 'अंगसुदे बहुविधे' गाथा (४९९) की टीका में श्रुत के 'आचारांगादि' भेदों का वर्णन किया गया है। ये नाम श्वेताम्बरपरम्परा के आगमों के हैं। निरसन-श्रुतभेदों के ये नाम दिगम्बरपरम्परा में भी प्रसिद्ध हैं। डॉ० सागरमल जी ने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में उपर्युक्त हेतुओं के साथ निम्नलिखित दो हेतु और जोड़े हैं १६. हेतु-'शिवार्य' जैसे आर्यान्त तथा 'जिननन्दी' जैसे नन्द्यन्त नाम यापनीयसम्प्रदाय में ही मिलते हैं। निरसन-दिगम्बरसम्प्रदाय में भी मिलते हैं, जैसे-'सुधर्म' नाम के द्वितीय केवली का नाम 'लोहार्य' (लोहाचार्य) भी था। चार आचारांगधारियों में भी एक 'लोहार्य' नाम के आचारांगधारी थे। माघनन्दी, पद्मनन्दी (कुन्दकुन्द), देवनन्दी (पूज्यपादस्वामी) आदि नन्द्यन्त नाम भी अनेक मिलते हैं। (अध्याय १३/प्र.२ / शी.३)। १७. हेतु-भगवती-आराधना में श्वेताम्बर-प्रकीर्णक ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ हैं, जो उसके यापनीयग्रन्थ होने का प्रमाण हैं। निरसन-भगवती-आराधना का रचनाकाल ईसवी प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध है और श्वेताम्बर-प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना ११वीं शताब्दी ई० में हुई थी। अतः श्वेताम्बरप्रकीर्णक ग्रन्थों में ही भगवती-आराधना की गाथाओं का पहुँचना सिद्ध होता है। इसलिए वह यापनीयग्रन्थ नहीं है। (अध्याय १३ / प्र.२ / शी.७.२)। इस प्रकार भगवती-आराधना के यापनीयग्रन्थ होने के पक्ष में प्रस्तुत किये गये सभी हेतु मिथ्या सिद्ध होते हैं। दूसरी ओर उसमें उसे दिगम्बरजैन-परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करनेवाले अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। यथा १. उसमें आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं केवलिभुक्ति का निषेध किया गया है। क-आचेलक्य को मुनि का प्रथम अनिवार्य धर्म बतलाया गया है और वस्त्रपात्रादि समस्त परिग्रह के त्याग को 'आचेलक्य' कहा गया है। ख-वस्त्रपात्रादि समस्त परिग्रह के त्याग से ही संयत-गुणस्थान की प्राप्ति बतलायी गयी है, जिससे सवस्त्रमुक्ति का निषेध होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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