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________________ ग्रन्थसार [एक सौ तेईस] ११. हेतु-भगवती-आराधना में वर्णित मृत मुनि के शवसंस्कार की विजहनाविधि (शव को वन में छोड़ देना) दिगम्बरमत के प्रतिकूल है। निरसन-वह दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल है। प्राचीन काल में वनों में विहार करनेवाले आरम्भ-परिग्रह एवं हिंसादि पापों के त्यागी दिगम्बरजैन मुनियों के लिए इसके अलावा कोई उपाय ही नहीं था। (अध्याय १३ / प्र.२ / शी.१३)। १२. हेतु-भगवती-आराधना की देसामासियसुत्तं' गाथा १११७ में आये तालपलंबसुत्तम्मि पद में बृहत्कल्प (श्वेताम्बरग्रन्थ) के सूत्र का उल्लेख होना उसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करता है। निरसन-तालपलंबसुत्त (तालप्रलम्बसूत्र) शब्द देशामर्शक (उपलक्षक = एकदेश के कथन द्वारा सर्व का बोध करानेवाले) शब्द का दृष्टान्त है। शिवार्य का कथन है कि जैसे 'तालप्रलम्ब' (ताड़वृक्ष की जटा) इस सूत्रात्मक (उपलक्षक) शब्द में 'ताल' शब्द केवल ताड़वृक्ष का बोधक नहीं है, अपितु सभी प्रकार की वनस्पतियों का उपलक्षक है, वैसे ही 'आचेलक्य' इस सूत्रात्मक शब्द में 'चेल' शब्द मात्र वस्त्र का वाचक नहीं है, बल्कि सभी प्रकार के परिग्रह का उपलक्षक है। इस प्रकार 'तालपलंबसुत्तम्मि' पद में 'सुत्त' शब्द से किसी अन्य सूत्र का उल्लेख नहीं किया गया है, अपितु 'तालपलंब' शब्द को ही देशामर्शक होने के कारण 'सूत्र' शब्द से अभिहित किया गया है। अतः भगवती-आराधना की उक्त गाथा में 'बृहत्कल्पसूत्र' के किसी सूत्र का उल्लेख नहीं है। दिगम्बराचार्य वीरसेन स्वामी ने भी धवलाटीका (ष.खं./ पु.१ / १,१,१ / पृ.९) के 'ण तालपलंबसुत्तं व देसामासियसुत्तादो' इस वाक्य में तालपलंबसुत्त शब्द दृष्टान्त के रूप में प्रयुक्त किया है। अतः जैसे 'तालपलंबसुत्त' शब्द के प्रयोग से धवलाटीका यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होती, वैसे ही भगवती-आराधना भी यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होती। १३. हेतु-भगवती-आराधना की 'आराधणापुरस्सर' गाथा (७५२) की विजयोदयाटीका में श्वेताम्बरग्रन्थ 'अनुयोगद्वारसूत्र' का उल्लेख है, अतः भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। निरसन-वहाँ, 'अनुयोगद्वारसूत्र' शब्द नहीं हैं, अपितु 'अनुयोगद्वार' शब्द है, जो सत् संख्या, क्षेत्र आदि निरूपणद्वारों का वाचक है। १४. हेतु-भगवती-आराधना की 'उत्तरगुणउज्जमणे' गाथा (११८) की विजयोदया टीका में 'पंचवदाणि जदीणं' इत्यादि आवश्यकसूत्र (श्वेताम्बरग्रन्थ) की गाथा उद्धृत की गयी है। अतः भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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