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________________ ग्रन्थसार [एक सौ इक्कीस] बतलाया गया है तथा श्राविका के लिंग को भी अपवादलिंग कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि भगवती-आराधनाकार शिवार्य ने श्रावक-श्राविका के सचेललिंग को ही अपवादलिंग नाम दिया है, मुनि के लिंग को नहीं। अतः भगवती-आराधना में अपवादमार्ग के रूप में मुनि को वस्त्रधारण की अनुमति दी गयी है, यह धारणा महाभ्रान्ति है। (अध्याय १३/प्र.१ / शी.१)। भगवती-आराधना के कर्ता शिवार्य ने 'आचेलक्य' (नाग्न्य) को मुनि का अनिवार्य प्रथम धर्म बतलाया है और कहा है कि केवल वस्त्र त्यागने से जीव संयत (मुनि) नहीं होता, इसलिए आचेलक्य में समस्त परिग्रह का त्याग गर्भित है। इस कथन से मुनि के लिए अपवादलिंग के विधान का भ्रम पूर्णतः निरस्त हो जाता है। २. हेतु-शिवार्य तथा उनके गुरुओं के नाम दिगम्बरपट्टावलियों या गुर्वावलियों में नहीं मिलते। अतः वे यापनीय होंगे, इसलिए उनके शिष्य शिवार्य भी यापनीय होंगे। निरसन-वट्टकेर, यतिवृषभ, समन्तभद्र, स्वामिकुमार, जोइंदुदेव जैसे दिगम्बराचार्यों के नाम भी दिगम्बर-पट्टावलियों में नहीं मिलते, फिर भी वे यापनीय नहीं थे। इसलिए दिगम्बर-पट्टावलियों में नाम न होना यापनीय होने का हेतु नहीं है। ३. हेतु-यापनीय-आचार्य अपराजितसूरि द्वारा भगवती-आराधना की टीका की गई है, अतः वह यापनीयग्रन्थ है। निरसन-अपराजितसूरि ने अपनी विजयोदयाटीका में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जिससे सिद्ध है कि वे यापनीय-आचार्य नहीं थे, अपितु दिगम्बराचार्य थे। अतः जिस भगवती-आराधना की उन्होंने टीका की है, वह भी दिगम्बरग्रन्थ है। (अध्याय १३ / प्र.२/ शी.४)। ४. हेतु-भगवती-आराधना की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से मिलती हैं। श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ यापनीय-आचार्य ही ग्रहण कर सकता है, अतः भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ है। निरसन-भगवती-आराधना की जो गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से साम्य रखती हैं, वे उसमें श्वेताम्बरग्रन्थों से नहीं आयी हैं, बल्कि दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद के पूर्व जो अविभक्त अचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा थी, उससे आयी हैं। अतः भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं है। ५. हेतु-यापनीय-आचार्य शाकटायन ने शिवार्य के गुरु सर्वगुप्त का उल्लेख किया है। अतः सर्वगुप्त और शिवार्य, दोनों यापनीय थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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