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________________ [ एक सौ बीस ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ११. दिगम्बर - शास्त्र भण्डारों में ही यह आज तक सुरक्षित चला आ रहा है, श्वेताम्बर और यापनीय भण्डारों में इसका कभी अस्तित्व नहीं रहा । १२. दिगम्बराचार्यों ने ही इस पर चूर्णिसूत्र और टीकाएँ लिखी हैं, श्वेताम्बर और यापनीय आचार्यों ने नहीं । ये वे अन्तरंग और बहिरंग प्रमाण हैं, जो कसायपाहुड को दिगम्बरपरम्परा के अतिरिक्त और किसी भी परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं करते। श्वेताम्बर मुनि श्री हेमचन्द्रविजय जी ने कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों को श्वेताम्बरीय ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया था । उसका सप्रमाण खण्डन सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने एक लेख में किया था। उसे प्रस्तुत अध्याय में उद्धृत किया गया है । (अध्याय १२ / प्र.४ )। तृतीय खण्ड भगवती आराधना आदि सोलह ग्रन्थों की कर्तृपरम्परा अध्याय १३ – भगवती - आराधना भगवती - आराधना दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है । उसमें प्रतिपादित सिद्धान्तों से यापनीयों की आपवादिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि मान्यताओं का निषेध होता है । तथापि दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी ने उसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ बतलाया है। उनसे प्रभावित होकर और उनकी प्रेरणा पाकर श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी, दिगम्बर विद्वान् प्रो० हीरालाल जी जैन, श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया एवं श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी जैन ने भी आँख मींचकर उसे यापनीय ग्रन्थ मान लिया है। यापनीयग्रन्थ होने के पक्ष में जो हेतु पं० नाथूराम जी प्रेमी ने उपस्थित किये हैं, उन्हीं की इन सब विद्वानों ने पुनरावृत्ति की है। किन्तु, वे हेतु नहीं, हेत्वाभास हैं। उनका निरसन करनेवाले तथ्य नीचे प्रस्तुत हैं। १. हेतु — भगवती - आराधना की गाथा ७९-८३ में मुनि के उत्सर्ग - अपवादमार्ग का विधान है, जिसके अनुसार मुनि वस्त्र धारण कर सकता है। निरसन - यह प्रेमी जी की महाभ्रान्ति है । उक्त गाथाओं में मुनि के लिए अपवादमार्ग का विधान नहीं है, अपितु मुनि के अचेललिंग को उत्सर्गलिंग और श्रावक के सचेललिंग को अपवादलिंग संज्ञा दी गयी है । भगवती आराधना में अपवादलिंग को १. सपरिग्रह और मुनिनिन्दा का कारणभूत, २. गृहस्थभाव का सूचक एवं ३. मुक्ति के लिए त्याज्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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