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________________ ग्रन्थसार [ एक सौ उन्नीस ] भावस्त्री या भावमानुषी शब्द से अभिहित किया गया है। इस प्रकार 'कसायपाहुड' में द्रव्यपुरुष की ही मुक्ति का कथन है, द्रव्यस्त्री या द्रव्यनपुंसक की मुक्ति का नहीं । अतः वह दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है, यापनीयपरम्परा का नहीं । (अध्याय १२ / प्र. ३ / शी. १२ तथा अध्याय ११ / प्र.४ / शी. १०) । ४. श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में कोई भी ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में नहीं रचा गया। श्वेताम्बरग्रन्थों की भाषा अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत है तथा यापनीयपरम्परा का प्राकृतभाषा में निबद्ध कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। उसके जो 'स्त्रीनिर्वाणप्रकरण' आदि तीन-चार ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे सभी, संस्कृत में हैं। कुछ विद्वानों ने शौरसेनी में रचित 'भगवती - आराधना', 'मूलाचार' आदि ग्रन्थों को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ बतलाया है, किन्तु वे सब दिगम्बरग्रन्थ हैं। 'कसायपाहुड' शौरसेनी में है, यह भी उसके दिगम्बरग्रन्थ होने का एक प्रमाण है । ५. कसायपाहुड की रचना ईसापूर्व द्वितीय शती के उत्तरार्ध में हुई थी, जब कि यापनीयसम्प्रदाय का उद्भव ईसोत्तर पंचम शती के प्रारम्भ में हुआ था । इस कारण भी कसायपाहुड यापनीयग्रन्थ नहीं हो सकता। डॉ० सागरमल जी ने जिस गुणस्थानविकासवाद के आधार पर कसायपाहुड को छठी शती ई० की कृति माना है, वह सर्वथा कपोलकल्पित है, प्रमाणसिद्ध तथ्य नहीं । गुणस्थानसिद्धान्त जिनोपदिष्ट है, विकसित नहीं । ६. कसायपाहुड के कर्त्ता गुणधर और चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ के नाम श्वेताम्बर - यापनीय - स्थविरावलियों में नहीं मिलते। ७. श्वेताम्बर-यापनीय-साहित्य में गुणधर तथा उनके द्वारा कसायपाहुड की रचना, आर्यमक्षु और नागहस्ती द्वारा आचार्यपरम्परा से उसके ज्ञान की प्राप्ति, तथा इन दोनों के चरणकमलों में बैठकर यतिवृषभ द्वारा कसायपाहुड के अर्थश्रवण एवं चूर्णिसूत्र लिखे जाने का कोई विवरण नहीं है, जब कि दिगम्बरसाहित्य में है । ८. दिगम्बरसाहित्य में अर्हद्बलि द्वारा गुणधर के नाम से एक गुणधरसंघ बनाये जाने का भी उल्लेख है । ९. जिन आर्यमंक्षु और नागहस्ती को आचार्यपरम्परा से कसायपाहुड की गाथाएँ प्राप्त होने का कथन जयधवलाकार ने किया है, वे श्वेताम्बर - स्थविरावलियों में निर्दिष्ट आर्यमंगु और नागहस्ती से भिन्न थे । १०. यह ग्रन्थ, परम्परा से दिगम्बरजैन आम्नाय में ही प्राचीन दिगम्बर - आगम के रूप में मान्य और प्रचलित है, श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों में नहीं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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