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[एक सौ अठारह]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ १. यापनीयमत में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये तीन पृथक्-पृथक् भाववेद स्वीकार नहीं किये गये हैं, एक वेदसामान्य ही स्वीकार किया गया है, जो स्त्री में स्त्रीवेद के रूप में, पुरुष में पुरुषवेद के रूप में और नपुंसक में नपुंसकवेद के रूप में परिणत हो जाता है। किन्तु , कसायपाहुड में तीनों भाववेदों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व माना गया है, अतः सिद्ध होता है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। . २. श्वेताम्बर-आगमों में गुणस्थान-सिद्धान्त का अभाव है। यापनीयसम्प्रदाय श्वेताम्बर-आगमों को ही मानता था, अतः उसमें भी गुणस्थान-सिद्धान्त की मान्यता नहीं थी। इन दोनों सम्प्रदायों में वह मान्य हो भी नहीं सकता था, क्योंकि इनमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और केवलिभुक्ति मानी गयी है और गुणस्थानसिद्धान्त इन सबके विरुद्ध है। कसायपाहुड में गुणस्थान-सिद्धान्त का प्रतिपादन है, यह उसके यापनीयग्रन्थ न होने और दिगम्बरग्रन्थ होने का ज्वलन्त प्रमाण है।
__३. अपगतवेदत्व गुणस्थानसिद्धान्त का ही अंग है और गुणस्थानसिद्धान्त दिगम्बरों का सिद्धान्त है, श्वेताम्बरों और यापनीयों का नहीं, अतः नौवें गुणस्थान के सवेदभाग से ऊपर जीव के अपगतवेद (भाववेदरहित) हो जाने का मत भी दिगम्बरमत है, श्वेताम्बरमत या यापनीयमत नहीं। अतः कसायपाहुड में अपगतवेदत्व की स्वीकृति से भी सिद्ध है कि वह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, अन्य किसी परम्परा का नहीं।
नौवें गुणस्थान के सवेदभाग से ऊपर जीव के पुरुषवेद (पुरुषवेदनोकषाय), स्त्रीवेद (स्त्रीवेदनोकषाय) एवं नपुंसकवेद (नपुंसकवेदनोकषाय) के अपगत (उपशम या क्षय) हो जाने का मत एक विशिष्ट दिगम्बर-सिद्धान्त पर आधारित है। आगम का कथन है कि कर्मभूमि के गर्भज, संज्ञी-असंज्ञी, तिर्यंचों और मनुष्यों में कोई-कोई तिर्यंच
और मनुष्य द्रव्य (शरीर) से पुरुष, स्त्री या नपुंसक होते हुए भी भाव से इसके विपरीत हो सकता है। अर्थात् जो शरीर से पुरुष है, उसमें पुरुषवेदनोकषाय का उदय न होकर स्त्रीवेदनोकषाय या नपुंसक-वेदनोकषाय का भी उदय हो सकता है, जिससे उसका भाव से स्त्री या नपुंसक होना भी संभव है। तथा जो शरीर से स्त्री या नपुंसक है, उसमें इससे विपरीत भाववेद का उदय होना संभव है। इसे वेदवैषम्य कहते हैं। अतः जो द्रव्य (शरीर) से पुरुष, किन्तु भाव से स्त्री या नपुंसक है, वह जीव भी मोक्ष प्राप्त कर सकता है, इसलिए नौवें गुणस्थान के सवेदभाग से ऊपर उसका भावस्त्रीवेद (स्त्रीवेदनोकषाय) या भावनपुंसकवेद (नपुंसकवेद नोकषाय) अपगत (उपशान्त या क्षीण) हो जाता है। इस प्रकार दिगम्बरजैनमत के अनुसार द्रव्यपुरुष ही अपगतवेद होता है, द्रव्यस्त्री और द्रव्यनपुंसक नहीं, क्योंकि वे पाँचवें गुणस्थान से ही ऊपर नहीं उठते, तब उनके नौवें गुणस्थान तक पहुँचने का प्रश्न ही नहीं उठता। जो कर्मभूमिज मनुष्य द्रव्य से पुरुष, किन्तु भाव से स्त्री है, उसे भी आगम में मनुष्यिनी या मानुषी अथवा
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