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ग्रन्थसार
[एक सौ सत्रह] ८. षट्खण्डागम में मणुसिणी शब्द का प्रयोग द्रव्यस्त्री और भावस्त्री, दोनों अर्थों में किया गया है। तदनुसार आदि के पाँच गुणस्थानों के प्रसंग में वह द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों का वाचक है, किन्तु शेष गुणस्थानों के प्रसंग में केवल भावस्त्री का। यापनीय-सम्प्रदाय के स्त्रीनिर्वाणप्रकरण में 'मनुष्यिनी' या 'मानुषी' शब्द का प्रयोग केवल द्रव्यस्त्री के अर्थ में किया गया है।
इस प्रकार यापनीयत्व-समर्थक हेतुओं की अनुपलब्धि एवं यापनीयत्व-विरोधी तथा दिगम्बरत्व-समर्थक हेतुओं की उपलब्धि से सिद्ध है कि षट्खण्डागम, न तो यापनीय सम्प्रदाय का ग्रन्थ है, न श्वेताम्बरसम्प्रदाय का और न दोनों की तथाकथित मातृपरम्परा का, अपितु एकान्त-अचेलमुक्तिवादी दिगम्बरजैन-परम्परा का ग्रन्थ है। अध्याय १२-कसायपाहुड
श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी ने कसायपाहुड को पहले यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ माना था, पश्चात् स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का ग्रन्थ मान लिया। उनके अनसार यह परम्परा ईसा की पाँचवी शताब्दी के प्रथम चरण तक विद्यमान थी। इसी समय इसके विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय संघ उत्पन्न हुए और यह परम्परा समाप्त हो गई। श्वेताम्बर और यापनीय संघों की जननी होने से इसे उन्होंने श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा नाम दिया है। किन्तु आगे चलकर जब उन्होंने यह उद्भावना की, कि गुणस्थान-सिद्धान्त तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद (उनके अनुसार ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी के बाद) विकसित हुआ है, तब उन्होंने उपर्युक्त मत बदल दिया, क्योंकि कसायपाहुड में गुणस्थानों के अनुसार जीव का प्ररूपण किया गया है। इस आधार पर उन्होंने यह मान लिया कि कसायपाहुड की रचना ईसा की पाँचवी-छठी शताब्दी में हुई थी। और चूँकि उस समय आचार्य गुणधर, आर्यमंक्षु और नागहस्ती का अस्तित्व नहीं था, इसलिए डॉक्टर सा० ने यह घोषित कर दिया कि इनमें से कोई भी कसायपाहुड का कर्ता नहीं हैं। फिर कर्ता कौन है, इसका निर्णय वे अन्त तक नहीं कर सके। तथापि इस पर उन्होंने यापनीयसम्प्रदाय की छाप लगा दी और इसके यापनीयग्रन्थ होने का मुख्य हेतु यह बतलाया कि इसमें स्त्री, पुरुष और नपुंसकों के अपगतवेदी होकर चतुर्दशगुणस्थान तक पहुँचने की बात कही गयी है, जो उसके स्त्रीमुक्तिसमर्थक होने का प्रमाण है। इस आधार पर वे इस ग्रन्थ को श्वेताम्बरपरम्परा का नहीं मान सकते थे, क्योंकि उनकी मान्यता है कि 'सभी श्वेताम्बरग्रन्थ अर्धमागधी प्राकृत में लिखे गये हैं।' किन्तु कसायपाहुड यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, यह निम्नलिखित तथ्यों से सिद्ध होता है
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