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________________ [एक सौ सोलह] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ इस वक्तव्य में भट्ट अकलंकदेव ने स्त्रीवेदनोकषाय के उदय से युक्त द्रव्यपुरुष को 'मानुषी' शब्द से अभिहित किया है। अतः दिगम्बर-जैन-कर्मसिद्धान्त की भाषा के अनुसार षट्खण्डागम में भावमनुष्यिनी में ही संयतगुणस्थान बतलाये गये हैं, द्रव्यमनुष्यिनी में नहीं। इसलिए उसमें द्रव्यस्त्री की मुक्ति का प्रतिपादन मानना प्रमाणसंगत एवं न्यायसंगत नहीं है। ___ इस प्रकार षट्खण्डागम को यापनीयपरम्परा या उसकी मातृपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये उपर्युक्त सभी हेतु निरस्त हो जाते हैं। इतना ही नहीं, षट्खण्डागम में ऐसे अनेक सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं, अत एव इस बात के सबूत हैं कि वह दिगम्बरजैन परम्परा के अतिरिक्त यापनीयपरम्परा या अन्य किसी परम्परा का ग्रन्थ हो ही नहीं सकता। वे इस प्रकार हैं १. षट्खण्डागम की रचना यापनीय-सम्प्रदाय की उत्पत्ति से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व हो चुकी थी। षट्खण्डागम ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध में रचा गया था और यापनीयसम्प्रदाय का जन्म ईसोत्तर पञ्चम शती के प्रारंभ में हुआ था। २. षट्खण्डागम का गुणस्थानसिद्धान्त यापनीयसिद्धान्तों के सर्वथा विरुद्ध है। इससे निम्नलिखित यापनीय-मान्यताओं का निषेध होता है-मिथ्यादृष्टि की मुक्ति, परतीर्थिक मुक्ति, गृहस्थमुक्ति, शुभाशुभ क्रियाओं में प्रवृत्त लोगों की मुक्ति, सम्यग्दृष्टि की स्त्रीपर्याय में उत्पत्ति तथा स्त्री को तीर्थंकरपद की प्राप्ति। ३. षट्खण्डागम में तीर्थंकरप्रकृति-बन्धक सोलहकारणों की स्वीकृति यापनीयमान्यता के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे, इसलिए उनके मत में बीस कारणों की मान्यता थी। ४. षट्खण्डागम में सवस्त्र स्थविरकल्प की अस्वीकृति यापनीयमत की अस्वीकृति है। ५. षट्खण्डागम में सोलह कल्पों ('कल्प' नामक स्वर्गों) की मान्यता यापनीयमान्यता के विपरीत है। यापनीयमत में बारह कल्प माने गये हैं। ६. षट्खण्डागम में नौ 'अनुदिश' नामक स्वर्गों का उल्लेख यापनीयमत के विरुद्ध है। यापनीयमत में इनका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है। ७. षट्खण्डागम में भाववेदत्रय और वेदवैषम्य स्वीकार किये गये हैं, यापनीयमत में इनका निषेध है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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