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________________ ग्रन्थसार [एक सौ पन्द्रह] उल्लेख कल्पसूत्र की स्थविरावली में नहीं हैं, अतः षट्खण्डागम की रचना श्वेताम्बरयापनीय-मातृपरम्परा के आचार्यों ने की है, यह मत अप्रामाणिक है। इसके अतिरिक्त उक्त परम्परा कपोलकल्पित है तथा डॉक्टर सागरमल जी ने ही षट्खण्डागम में गुणस्थानसिद्धान्त का प्रतिपादन होने से उसे ईसा की पाँचवीं शती का ग्रन्थ मानकर उपर्युक्त परम्परा में उसके रचे जाने का मत निरस्त कर दिया है, और इस प्रकार स्वयं ही स्वीकार कर लिया है कि उनकी कल्पनाएँ कितनी बेसिरपैर की हैं। उनका गुणस्थानविकासवाद भी कपोलकल्पित है, अतः इस आधार पर षट्खण्डागम को ईसा की पाँचवीं शताब्दी में रचित मानना भी अप्रामाणिक है। आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे और उन्होंने षट्खण्डागम पर 'परिकर्म' नामक टीका लिखी थी, यह इसका प्रमाण है कि षट्खण्डागम ईसापूर्व प्रथम शती के पूर्वार्ध का ग्रन्थ है और मूलसंघ के आचार्यों द्वारा रचा गया है। ८. हेतु-षट्खण्डागम में मणुसिणी (मनुष्यस्त्री) में संयत-गुणस्थान बतलाये गये हैं। मणुसिणी का अर्थ केवल द्रव्यस्त्री है। उसे जो भावस्त्री का भी बाचक माना गया है, वह गलत है। इससे सिद्ध होता है कि ग्रन्थ स्त्रीमुक्ति-समर्थक परम्परा का है। यापनीय भी स्त्रीमुक्ति समर्थक थे, अतः इसके कर्ता यापनीय ही होंगे। निरसन-षट्खण्डागम को यापनीयपरम्परा का या तथाकथित श्वेताम्बर-यापनीयमातृपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये उपर्युक्त सभी हेतु निरस्त हो जाते हैं, जिससे सिद्ध है कि वह न तो यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है, न श्वेताम्बरयापनीय-मातृपरम्परा का, अपितु दिगम्बरजैनपरम्परा का है। षट्खण्डागम में ऐसे अनेक सिद्धान्त हैं, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं, जिनका निरूपण आगे किया जा रहा है, उनसे भी यही सिद्ध होता है कि वह दिगम्बरजैनाचार्यों की कृति है। और दिगम्बरजैनकर्मसिद्धान्त की भाषा में उस मनुष्य को भी भाववेद या भावलिंग की अपेक्षा 'स्त्री', 'मनुष्यिनी' या 'मानुषी' कहा गया है, जो द्रव्य (शरीर) से तो पुरुष होता है, किन्तु जिसमें पुरुषवेदनोकषाय का उदय न होकर स्त्रीवेदनोकषाय का उदय होता है। दिगम्बरमत में उसे भी मुक्ति का पात्र माना गया है, इसलिए उसमें चौदहों गुणस्थानों का होना बतलाया गया है। भट्ट अकलंकदेव के निम्नलिखित वचन इसमें प्रमाण हैं ___ "मानुषीषु पर्याप्तिकासु चतुर्दशापि गुणस्थानानि सन्ति भावलिङ्गापेक्षया, न द्रव्यलिङ्गापेक्षया। द्रव्यलिङ्गापेक्षया तु पञ्चाद्यानि।" (तत्त्वार्थराजवार्तिक/९/७/११/पृ.६०५)। अनुवाद-"पर्याप्तिका मानुषियों में चौदहों गुणस्थान होते हैं, किन्तु भावलिंग की अपेक्षा, न कि द्रव्यलिंग की अपेक्षा। द्रव्यलिंग की अपेक्षा तो आदि के पाँच ही होते हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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