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[एक सौ चौदह]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ के समय से एकमात्र एकान्त-अचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा चली आ रही थी। उसके विभाजन से दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं का उद्भव हुआ था। अतः जो गाथाएँ दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम और तत्समकालीन प्रज्ञापनासूत्र में समान हैं, वे दोनों परम्पराओं को अपनी मूल एकान्त-अचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा से प्राप्त हुई हैं। और जो समान गाथाएँ प्रज्ञापनासूत्र में नहीं हैं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम और श्वेताम्बरग्रन्थ आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य आदि में हैं. वे निश्चित ही षटखण्डागम से इन ग्रन्थों में पहँची हैं, क्योंकि षट्खण्डागम का रचनाकाल ईसापूर्व प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध है, जब कि आवश्यकनियुक्ति एवं विशेषावश्यकभाष्य का क्रमशः ५०५ ई० एवं ६०३ ई० है। अतः षट्खण्डागम को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करनेवाला उपर्युक्त हेतु निरस्त हो जाता है। तथा डॉक्टर सा० ने स्वयं ही पूर्व में उसे उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का ग्रन्थ कहा है, इससे उनके ही वचनों से उनका यह उत्तरमत निरस्त हो जाता
६. हेतु-धरसेन के महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के उपदेश के आधार पर पुष्पदन्त और भूतबलि ने षट्खण्डागम की रचना की थी। अतः धरसेन श्वेताम्बर-यापनीयमातृपरम्परा के आचार्य थे और पुष्पदन्त तथा भूतबलि यापनीयपरम्परा के।
निरसन-पुष्पदन्त और भूतबलि, धरसेन के साक्षात् शिष्य थे, अतः समकालीन थे। अब यदि धरसेन उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के आचार्य थे, तो सिद्ध होता है कि उस समय उसका विभाजन नहीं हुआ था, और विभाजन नहीं हुआ था, तो (डॉ० सागरमल जी के मतानुसार) उस समय यापनीयसंघ की उत्पत्ति नहीं हुई थी, तब पुष्पदन्त और भूतबलि यापनीयपरम्परा के कैसे हो सकते हैं ? यह असंभव है। दूसरे, उत्तरभारतीय सचेलाचेल निग्रन्थसंघ का अस्तित्व ही नहीं था, अतः धरसेन को उक्त संघ से सम्बद्ध बतलाना भी मिथ्या है।
७. हेतु-षट्खण्डागम की रचना से सम्बन्धित आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि वस्तुतः कल्पसूत्र की स्थविरावली में उल्लिखित वज्रसेन, पुसगिरि और भूतदिन्न ही हैं। अतः षट्खण्डागम की रचना श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा के आचार्यों ने की है।
निरसन-यदि षट्खण्डागम के कर्ता वज्रसेन, पुसगिरि और भूतदिन्न होते, तो षट्खण्डागम में इन्हीं का उल्लेख होता। मूल ताड़पत्र प्रति में वज्रसेन की जगह 'धरसेन'
और 'पुसगिरि' की जगह 'पुष्पदन्त' ये बिलकुल भिन्न नाम तथा भूतदिन्न के स्थान में 'भूतबलि' यह आधा भिन्न नाम हो जाने का कोई कारण नहीं है। यतः षट्खण्डागम की मूल ताड़पत्र प्रति में 'धरसेन' 'पुष्पदन्त' और 'भूतबलि' नाम ही हैं और इनका
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