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________________ ग्रन्थसार [एक सौ तेरह] मूलसंघीय नन्दिसंघ से भिन्नता दर्शाने के लिए यापनीय-नन्दिसंघ के साथ सर्वत्र 'यापनीय' शब्द का प्रयोग किया गया है, जैसे-"यापनीयनन्दिसङ्गपुनागवृक्षमूलगणे (कडब-लेख/क्र.१२४/ अध्याय ११/प्र.३/शी.३)। आचार्य धरसेन का उल्लेख मूलसंघीय नन्दिसंघ की प्राकृत-पट्टावली में है। इससे सिद्ध है कि वे यापनीयसंघ से नहीं, अपितु मूलसंघ से सम्बद्ध थे। ____३. हेतु-धरसेन ने अपने पुष्पदन्त और भूतबलि शिष्यों के लिए जोणिपाहुड ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का सर्वाधिक उल्लेख श्वेताम्बरसाहित्य में है और यह शौरसेनी में लिखित है, इसलिए सम्भावना है कि इसके उपदेशक धरसेन उत्तरभारत की अविभक्त सचेलाचेल निर्ग्रन्थपरम्परा अर्थात् श्वेताम्बरों और यापनीयों की समान मातृपरम्परा से सम्बद्ध रहे होंगे। निरसन-इस परम्परा का अस्तित्व ही नहीं था तथा डॉ० सागरमल जी ने स्वयं षट्खण्डागम में गुणस्थानसिद्धान्त का प्ररूपण होने से इसके उपदेशक आचार्य धरसेन को ईसा की पाँचवीं शताब्दी में उत्पन्न मानकर अपने उक्त मत को कपोलकल्पित सिद्ध कर दिया है। तथा धरसेन के ५वीं शती ई० में उत्पन्न होने का मत भी अप्रामाणिक है, क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द ने षट्खण्डागम पर परिकर्म नामक टीका लिखी थी और वे ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे, इससे सिद्ध है कि आचार्य धरसेन ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध में विद्यमान थे और मूलसंघ अर्थात् निम्रन्थ-महाश्रमणसंघ के आचार्य थे। ४. हेतु-धरसेन ने पुष्पदन्त और भूतबलि को महाकर्मप्रकृति-प्राभृत का उपदेश दिया था, जिसके आधार पर उन्होंने षट्खण्डागम की रचना की थी। महाकर्मप्रकृतिप्राभृत उत्तरभारत की अविभक्त-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा में निर्मित हुआ था, अतः धरसेन इसी परम्परा के आचार्य सिद्ध होते हैं। निरसन-इस परम्परा का अस्तित्व ही नहीं था, अतः धरसेन का इस परम्परा का आचार्य होना असंभव है। ५. हेतु-षट्खण्डागम की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से समानता रखती हैं। यह साम्य तभी हो सकता है, जब दोनों किसी समान पूर्वपरम्परा से सम्बद्ध हों। वह समान पूर्वपरम्परा उत्तरभारत की सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा थी, जिससे श्वेताम्बरों और यापनीयों की उत्पत्ति हुई थी। इससे सिद्ध होता है कि षट्खण्डागम यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। निरसन-तथाकथित उत्तरभारत की सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का अस्तित्व ही नहीं था, अतः उससे श्वेताम्बर और यापनीयों की उत्पत्ति असंभव थी। भगवान् महावीर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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