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________________ [एक सौ बारह] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ जो अनेक कारणों से संगत नहीं है। पूर्वोद्धत प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे। अध्याय ११-षट्खण्डागम ___ डॉ० सागरमल जी ने षट्खण्डागम को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे यापनीयग्रन्थ के लक्षण (असाधारणधर्म) नहीं हैं, अतः उनसे वह यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। उनका प्रदर्शन और निरसन नीचे किया जा रहा है। १. हेतु-षट्खण्डागम के उपदेशक आचार्य धरसेन का नाम दिगम्बरपट्टावलियों में नहीं मिलता। यह सूचित करता है कि धरसेन दिगम्बरपरम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा के आचार्य थे। निरसन-षट्खण्डागम के उपदेशक आचार्य धरसेन तथा कर्ताद्वय आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि के नाम दिगम्बरपट्टावली और दिगम्बरसाहित्य में अनेकत्र उपलब्ध हैं। दिगम्बरजैन-साहित्य में षट्खण्डागम के कर्ताओं के रूप में उनका उल्लेख है और षट्खण्डागम की रचना का इतिहास दिगम्बरजैनसाहित्य में वर्णित है। शौरसेनी प्राकृत में लिखित षट्खण्डागम की ताड़पत्रीय प्रतियाँ मूडबिद्री (कर्नाटक) के दिगम्बरमठ में उपलब्ध हुई हैं। दिगम्बराचार्यों ने उस पर टीकाएँ लिखी हैं। दिगम्बरजैन-परम्परा के तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थराजवार्तिक में उसका अनुसरण किया गया है। गोम्मटसार जैसा महान् ग्रन्थ षटखण्डागम के ही आधार पर रचा गया है। किन्तु श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की स्थविरावलियों और साहित्य में न तो षट्खण्डागम के उपदेशक एवं कर्ताओं (धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि) के नाम का उल्लेख है, न षट्खण्डागम का, न षट्खण्डागम की रचना के इतिहास का कोई विवरण है, न ही अर्धमागधी-प्राकृत में षट्खण्डागम की कोई प्रति उपलब्ध २. हेतु-नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली यापनीयसंघ की पट्टावली है। उसमें धरसेन के नाम का उल्लेख है। इससे सिद्ध होता है कि वे यापनीयसंघ से सम्बद्ध रहे हैं। निरसन–'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रकाशित नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली दिगम्बरपट्टावली ही है, क्योंकि उसमें नन्दिसंघ के साथ 'मूलसंघ' का उल्लेख है। यथा-"श्रीमूलसङ्घप्रवरे नन्द्याम्नाये मनोहरे" (श्लोक २ / The Indian Antiquary, vol. XX, p.344)। प्रथम शुभचन्द्रकृत नन्दिसंघ की गुर्वावली में भी कहा गया है कि मूलसंघ में नन्दिसंघ उत्पन्न हुआ-"श्रीमूलसङ्ग्रेऽजनि नन्दिसङ्घः।" (श्लोक २)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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