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ग्रन्थसार
[एक सौ ग्यारह] है कि कुन्दकुन्द भद्रबाहु-द्वितीय के शिष्य थे और उन्होंने आगे चलकर दिगम्बरमत चलाया। इसके फलस्वरूप यह कथन भी असंगत ठहरता है कि वे ईसा की द्वितीय शताब्दी में हुए थे।
एक व्यक्ति एक ही समय में श्वेताम्बर (अचेलमुक्ति का निषेधक), बोटिक (प्रो० हीरालाल जी की मान्यतानुसार अपवादरूप से सचेलमुक्ति का समर्थक) तथा दिगम्बर (सचेलमुक्ति का निषेधक), तीनों नहीं हो सकता। एक व्यक्ति एक ही समय में छद्मस्थ और केवलज्ञानी दोनों नहीं हो सकता। और एक व्यक्ति ईसापूर्व प्रथम शताब्दी से लेकर ईसोत्तर पाँचवीं शताब्दी तक जीवित नहीं रह सकता। किन्तु प्रो० हीरालाल जी ने इन अनहोनियों को होनी बनाने का अद्भुत कौशल दिखलाया है। कल्पसूत्र की स्थविरावली में उल्लिखित जिन शिवभूति को उन्होंने प्रथम शती ई० से पाँचवीं शती ई० तक श्वेताम्बर माना है, उन्हीं को प्रथम शती ई० में बोटिक भी मान लिया है, और उन्हीं को उसी शती में दिगम्बर भी मान लिया है, क्योंकि दिगम्बर कुन्दकुन्द ने उनकी प्रशंसा की है। और आचार्य कुन्दकुन्द ने इन शिवभूति को केवलज्ञान प्राप्त करनेवाला बतलाया है (भावपाहुड / गा.५३), किन्तु स्थविरावली-निर्दिष्ट शिवभूति तथा भगवती-आराधना के कर्ता शिवभूति केवलज्ञानी नहीं थे। फिर भी प्रोफेसर सा० ने इन सबको एक ही व्यक्ति मान लिया है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति को एक ही समय में छद्मस्थ और केवली, दोनों बना दिया है। तथा 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रकाशित नन्दिसंघीय पट्टावली के अनुसार दिगम्बर-भद्रबाहु-द्वितीय ई० पू० ५३ में आचार्य पद पर आसीन हुए थे, जब कि श्वेताम्बर-भद्रबाहु-द्वितीय का अस्तित्वकाल पाँचवीं-छठी शताब्दी ई० है। इनको भी एक ही व्यक्ति मानकर एक मनुष्य को पञ्चमकाल में पाँच सौ वर्षों तक जीवित रहनेवाला सिद्ध कर दिया है। ऐसी घोर विसंगतियों से परिपूर्ण कपोलकल्पनाओं के द्वारा प्रोफेसर सा० ने कुन्दकुन्द को दिगम्बरमत का प्रवर्तक और द्वितीय शताब्दी ई० में उत्पन्न सिद्ध करने की चेष्टा की है। अतः उनका मत सर्वथा अप्रामाणिक और अग्राह्य है। (अध्याय १० / प्र. ८ / शी.२.७)।
प्रो० हीरालाल जी जैन के शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार के एकत्वविषयक मत का खण्डन पं० परमानन्द जी जैन शास्त्री ने तथा श्वेताम्बर-भद्रबाहु-द्वितीय एवं स्वामी समन्तभद्र की अभेदविषयक मान्यता का निरसन न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी जैन कोठिया ने अपने लेखों में अन्य अनेक प्रमाणों के द्वारा किया है। उक्त लेख प्रस्तुत ग्रन्थ में उद्धृत किये गये हैं। (अध्याय १०/ प्र.८ / शी. २.९ एवं २.१०)।
१६. ब्र० भूरामल जी ने कुन्दकुन्द को श्रुतकेवली भद्रबाहु का और पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भद्रबाहु-द्वितीय का प्रत्यक्ष शिष्य मानकर उनका समकालीन माना है,
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