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________________ [एक सौ दस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ निरसन-प्रोफेसर सा० की यह उद्भावना सर्वथा असंगत है। उपर्युक्त चारों शिवभूति एक ही व्यक्ति नहीं हो सकते, क्योंकि उनके सम्प्रदाय, मान्यताएँ , स्थितिकाल और चरित्र अलग-अलग हैं। कल्पसूत्र की स्थविरावली में उल्लिखित शिवभूति श्वेताम्बरपरम्परा के हैं। पाँचवीं शती ई० में जब देवर्द्धिगणि-क्षमाश्रमण कल्पसूत्र को पुस्तकारूढ़ कर रहे थे, तब भी उन्होंने उक्त शिवभूति को श्वेताम्बर-स्थविरावली में स्थान दिया है। इससे सिद्ध है कि वे पाँचवी शताब्दी ई० तक श्वेताम्बराचार्य ही माने जाते थे और श्वेताम्बरों के लिए पूज्य थे, जब कि बोटिक-सम्प्रदाय-प्रवर्तक शिवभूति श्वेताम्बरसाहित्य के अनुसार प्रथम शताब्दी ई० में ही श्वेताम्बरसंघ छोड़कर बोटिक (दिगम्बर) मत का प्रवर्तक बन गया था। तथा इसके चरित्र का जो चित्रण श्वेताम्बरसाहित्य में किया गया है, वह अत्यन्त हीन है। विशेषावश्यकभाष्य आदि श्वेताम्बरग्रन्थों में उसे घोर मिथ्यादृष्टि, प्रभूततर-विसंवादी और परलिंगी कहा गया है। क्या इस शिवभूति का कल्पसूत्र की स्थविरावली में, मान्य श्वेताम्बराचार्य के रूप में उल्लेख हो सकता है? कदापि नहीं। अतः सिद्ध है कि कल्पसूत्र की स्थविरावली में निर्दिष्ट आर्य शिवभूति, बोटिक शिवभूति से सर्वथा भिन्न हैं। ___ इसके अतिरिक्त 'विशेषावश्यकभाष्य' में बोटिक शिवभूति के गुरु का नाम आर्यकृष्ण बतलाया गया है, किन्तु कल्पसूत्र की स्थविरावली में शिवभूति को पहले नमस्कार किया गया है और कृष्ण (कण्ह) को 'शिवभूति', 'कोसिय' तथा 'दुज्जत' के बाद। इससे सिद्ध है कि स्थविरावली-गत शिवभूति के गुरु आर्यकृष्ण नहीं हैं, अतः दोनों शिवभूति भिन्न-भिन्न हैं। 'भगवती-आराधना' के कर्ता शिवार्य ने भी अपने तीन गुरुओं के नाम का उल्लेख किया है : जिननन्दिगणी, सर्वगुप्तगणी और मित्रनन्दी। इनमें भी आर्यकृष्ण का नाम नहीं है। अतः शिवार्य भी उक्त दोनों शिवभूतियों से भिन्न सिद्ध होते हैं। फिर शिवार्य ने अपने को पाणितलभोजी कहा है और भगवती-आराधना में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं केवलिभुक्ति आदि श्वेताम्बरीय मान्यताओं का निषेध किया है। ये भी इस बात के सबूत हैं कि शिवार्य कल्पसूत्रस्थविरावली के शिवभूति से भिन्न हैं। प्रो० हीरालाल जी ने कहा है कि शिवभूति के उत्तराधिकारी भद्रबाहु-द्वितीय हुए , किन्तु विशेषावश्यकभाष्य में बतलाया गया है कि शिवभूति की गुरु शिष्यपरम्परा कौण्डिन्य और कोट्टवीर नामक शिष्यों से चली। यहाँ भद्रबाहु के नाम का एक अक्षर भी नहीं है। यह साहित्यिक प्रमाण साक्षी है कि प्रोफेसर सा० का यह कथन भी कपोलकल्पित है। और जब यह असत्य सिद्ध हो जाता है कि भद्रबाहुद्वितीय शिवभूति के शिष्य थे, तब प्रो० हीरालाल जी की बतलायी हुई सारी गुरुशिष्यपरम्परा बनावटी साबित हो जाती है। अतः यह उद्भावना भी मनगढन्त सिद्ध हो जाती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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