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________________ ग्रन्थसार [एक सौ नौ] 'दशवैकालिकसूत्र' में हिन्दी शब्दों के प्रयोग के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। (अध्याय १०/प्र.७)। अतः 'षट्प्राभृत' में अपभ्रंश-प्रयोग उपलब्ध होने से यह सिद्ध नहीं होता कि कुन्दकुन्द ईसा की पाँचवी-छठी शताब्दी में हुए थे। अपभ्रंशप्रयोग से उनका ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में विद्यमान होना बाधित नहीं होता। १५. प्रो० हीरालाल जी जैन ने (जो दिगम्बर जैन थे) एक चौंकानेवाले कपोलकल्पित इतिहास के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द का समय वीरनिर्वाण के ६५० वर्ष बाद अर्थात् ईसा की द्वितीय शताब्दी (ईसापूर्व ६५०-५२७ = १२३ ई०) में बतलाया है। उन्होंने अपने 'जैन इतिहास का एक: विलुप्त अध्याय' नामक शोधपत्र में, जो 'अखिल भारतीय प्राच्यसम्मेलन के १२ वें अधिवेशन' (ई० सन् १९४४) में पढ़ा था, केवल नामसाम्य के आधार पर भगवती-आराधना के कर्ता दिगम्बर शिवार्य, तुषमाषघोषक दिगम्बरमुनि शिवभूति, श्वेताम्बर-कल्पसूत्र की स्थविरावली में उल्लिखित शिवभूति तथा बोटिकसम्प्रदाय के संस्थापक शिवभूति, इन चारों को एक ही व्यक्ति बतलाया है। इसी प्रकार दिगम्बर भद्रबाहु-द्वितीय एवं दिगम्बर समन्तभद्र तथा श्वेताम्बर भद्रबाहुद्वितीय एवं श्वेताम्बर सामन्तभद्र को भी एक ही व्यक्ति सिद्ध करने की चेष्टा की है। और मजे की बात यह है कि इस अभिन्नता के द्वारा श्वेताम्बरपरम्परा के शिवभूति एवं भद्रबाहु-द्वितीय आदि का दिगम्बरीकरण न कर, दिगम्बर शिवार्य (शिवभूति), दिगम्बर भद्रबाह-द्वितीय और दिगम्बर समन्तभद्र का श्वेताम्बरीकरण किया है। क्योंकि प्रोफेसर सा० की मान्यता है कि उस समय दिगम्बरमत की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी, उसका प्रवर्तन तो द्वितीय शताब्दी ई० में कुन्दकुन्द ने किया था। इस प्रकार वे शिवभूति और भद्रबाहु-द्वितीय को श्वेताम्बर और बोटिक दोनों मानते हैं, दिगम्बर किसी को भी नहीं मानते। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि प्रोफेसर हीरालाल जी ने भी बोटिकसम्प्रदाय को यापनीयसम्प्रदाय का पूर्वरूप माना है। प्रोफेसर सा० आगे बतलाते हैं कि श्वेताम्बर-बोटिक शिवभूति के शिष्य बने श्वेताम्बर भद्रबाहु-द्वितीय तथा श्वेताम्बरबोटिक भद्रबाहु-द्वितीय के शिष्य हुए कुन्दकुन्द। शिवभूति के दूसरे शिष्य घोषनन्दी हुए और उनके शिष्य हुए उमास्वाति। ___ इस प्रकार प्रोफेसर सा० ने कुन्दकुन्द को आरम्भ में श्वेताम्बर और बोटिक दोनों माना है। किन्तु वे कहते हैं कि आगे चलकर कुन्दकुन्द ने सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का सर्वथा निषेध कर दिया और इस प्रकार दिगम्बरमत का प्रवर्तन किया। किन्तु उनके इस कठोरमार्ग के प्रवर्तन से असहमत तथा शिवभूति के आपवादिक सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति के समर्थक मुनियों ने उमास्वाति के नेतृत्व में पृथक् यापनीयसंघ बना लिया। (अध्याय १० / प्र.८/शी.१)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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