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ग्रन्थसार
[एक सौ सात] रची है। उसमें जो कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की गाथाएँ मिलती हैं, वे उस समय प्रक्षिप्त की गयी हैं, जब वह यापनीयों के माध्यम से दिगम्बरों के पास आया। उसमें छठी शती ई० के आरंभ में रचित श्वेताम्बर-नियुक्तियों की गाथाएँ मिलती हैं, इसलिए वह (मूलाचार) छठी शती ई० के उत्तरार्ध में रचा गया है।
निरसन-मूलाचार दिगम्बरग्रन्थ है, क्योंकि उसमें यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। इसलिए वह यापनीयों के माध्यम से दिगम्बरों के पास आया है, इस कल्पना के लिए स्थान नहीं है। अतएव उसमें कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की गाथाएँ प्रक्षिप्त किये जाने की कल्पना निराधार है। मूलाचार के कर्ता ने स्वयं उन्हें कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से ग्रहण किया है। उसमें छठी शती के आरंभ में रचित श्वेताम्बर-नियुक्तियों की गाथाएँ नहीं हैं, बल्कि उसकी गाथाएँ श्वेताम्बर-नियुक्तियों में है, अतः उसे छठी शती ई० में रचित मानना निराधार है। वह ईसा की प्रथम शती के उत्तरार्ध की कृति है।
१३.८. हेतु-कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में छठी शती ई० के श्वेताम्बर-प्रकीर्णक ग्रन्थों की गाथाएँ हैं।
निरसन-इसके विपरीत श्वेताम्बर-प्रकीर्णक ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की गाथाएँ हैं, क्योंकि कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे।
१३.९. हेतु-छठी शती ई० के सिद्धसेन दिवाकर और मल्लवादी ने निश्चयनय का प्रयोग गहराई और विस्तार से नहीं किया, कुन्दकुन्द ने किया है, अतः वे उत्तरवर्ती हैं।
निरसन-वंताम्बरपरम्परा में द्रव्यानुर्याग और चरणानुर्याग का अध्यात्मपक्ष सुरक्षित नहीं रहा, इसलिए उसमें निश्चयनय के गहन और विस्तृत प्रयोग के लिए अवसर ही नहीं था। होता, तो वे भी वैसा ही करते।
१३.१०. हेतु-कुन्दकुन्द ने आत्मा के शुद्धस्वरूप के प्रतिपादन में ८वीं शती ई० के वेदान्तिक गौडपाद का अनुसरण किया है।
निरसन-कुन्दकुन्द ने स्वयं कहा है कि उन्होंने श्रुतकेवली के उपदेश के आधार पर अपने ग्रन्थों की रचना की है।
१३.११. हेतु-'समय' शब्द बहुत पहले से 'मत' (स्वमत-परमत) के अर्थ में प्रसिद्ध था, कुन्दकुन्द ने उसे 'आत्मा' के अर्थ में प्रचलित कर दिया, जो नवीन होने के कारण कुन्दकुन्द को अर्वाचीन सिद्ध करता है।
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