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________________ [ एक सौ छह ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ दोनों का उल्लेख है। अतः उक्त संवत् शकसंवत् ही है । यह सत्य है कि राजा अकालवर्षपृथुवीवल्लभ कृष्ण तृतीय ( ९३७ - ९६८ ई०) के काल में मर्करा - ताम्रपत्रों का पुनर्लेखन कराया गया और उनमें ग्रामदान का वृत्तान्त तो पूर्ववत् ही पूर्वोल्लिखित शकसंवत् ३८८ के साथ पुनः लिखवाया गया, किन्तु कोङ्गणि - महाधिराज अविनीत के मन्त्री के स्थान में अकालवर्ष - पृथ्वीवल्लभ के मन्त्री का उल्लेख कर दिया गया, यह अनेक युक्तियों से सिद्ध होता है । (अध्याय १० / प्र.१ / शी. ११) । अतः वह अंशत: कृत्रिम है, पूर्णत: नहीं। इसलिए कुन्दकुन्दान्वय का शकसंवत् ३८८ ( ई० सन् ४६६ ) और उससे पूर्व में तथा कुन्दकुन्द का ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में विद्यमान होना असिद्ध नहीं होता । १३.३. हेतु - आचार्य कुन्दकुन्द ने ८ वीं शती ई० के राजा शिवमार के लिए प्रवचनसार की रचना की थी । निरसन - आचार्य जयसेन ने शिवमार के लिए नहीं, शिवकुमार के लिए प्रवचनसार और पंचास्तिकाय के रचे जाने का कथन किया है और वे राजा नहीं थे, बल्कि अराजवंशीय सामान्य पुरुष थे । १३.४. हेतु - आचार्य जयसेन ने पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में कुमारनन्दिसिद्धान्तदेव को कुन्दकुन्द का गुरु कहा है । वे ८वीं शती ई० में हुए थे, यह शकसंवत् ७३० ( ई० ८०८) के वदनोगुप्पे - ताम्रपट्ट - दानपत्र से सिद्ध है । निरसन — उक्त दानपत्र में 'कुमारणन्दिभटार' और 'एलवाचार्यगुरु' नाम उल्लिखित हैं। 'कुमारनन्दिसिद्धान्तदेव' और 'कुमारणन्दिभटार' तथा 'एलाचार्य' और 'एलवाचार्यगुरु' इन नामों में बहुत अन्तर है । इनके एकत्व की पुष्टि करनेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अतः कुन्दकुन्द को ८ वीं शती ई० में विद्यमान मानना अप्रामाणिक है । १३.५. हेतु - कुन्दकुन्द ने लिंगप्राभृत ( लिंगपाहुड) में मुनियों की जिन शिथिल - चारी प्रवृत्तियों पर प्रहार किया है, वे छठी शती ई० के बाद की घटनाएँ हैं । ܪ निरसन - कुन्दकुन्द ने उन्हें अनादि प्रवृत्त कहा है। १३.६. हेतु - छठी शती ई० में रचित षट्खण्डागम पर कुन्दकुन्द ने टीका लिखी है। निरसन - षट्खण्डागम ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है। १३.७. हेतु – कुन्दकुन्द ने छठी शती ई० में रचित यापनीयग्रन्थ 'मूलाचार' का अनुकरण कर 'समयसार' में 'प्रतिक्रमणादि को विषकुम्भ' कहनेवाली गाथा (३०६) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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