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[एक सौ चार]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ ख-तत्त्वार्थसूत्र में नौ गुणस्थानों का कथन शब्दतः है, और पाँच का अर्थतः। इस प्रकार उसमें चौदहों गुणस्थानों का वर्णन है।
ग-तत्त्वार्थसूत्र के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में उपशमक और क्षपक श्रेणियों का उल्लेख तथा अनन्तवियोजक एवं दर्शनमोहक्षपक संज्ञाओं का प्रयोग तत्त्वार्थसूत्रकार के गुणस्थानसिद्धान्त-विषयक गहन और सूक्ष्म ज्ञान का परिचायक है।
घ-तत्त्वार्थसूत्र का सम्पूर्ण विषयप्रतिपादन गुणस्थान-केन्द्रित है और उसकी गुणस्थान-केन्द्रितता सर्वमान्य है।
ङ-तत्त्वार्थसूत्र में जिस कर्मव्यवस्था का प्ररूपण है, उससे चतुर्दश-गुणस्थानव्यवस्था स्वतः सिद्ध होती है। अतः गुणस्थान-व्यवस्था उतनी ही प्राचीन है, जितनी तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित कर्मव्यवस्था।
__च-तत्त्वार्थसूत्र में उल्लिखित सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि अवस्थाएँ लक्षणतः गुणस्थान हैं। उन्हें केवल इसलिए गुणस्थान न मानना कि उनके साथ 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, वैसी ही कथा है, जैसे कोई हाथी को साक्षात् खड़ा हुआ देखकर भी उसे इसलिए हाथी न माने कि उसके ऊपर 'हाथी' शब्द नहीं लिखा है।
छ–'तत्त्वार्थ' के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में उल्लिखित 'सम्यग्दृष्टि', 'श्रावक', 'विरत' आदि अवस्थाएँ गुणस्थान ही हैं, उनके लिए 'आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएँ' शब्द का प्रयोग आगमोक्त नहीं है, स्वकल्पित है। इस शब्द का प्रयोग तो तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी नहीं किया।
ज-श्वेताम्बर-आगमों में न तो गुणस्थानों की मान्यता है, न गुणश्रेणिनिर्जरा के स्थानों की। 'समवायांग' और 'आचारांगनियुक्ति' में इनका प्रवेश षट्खण्डागम से हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र में भी वहीं से आये हैं। इस प्रकार गुणस्थानसिद्धान्त तत्त्वार्थसूत्र से पूर्ववर्ती है। फलस्वरूप उसके विकसित होने की मान्यता अप्रामाणिक है। अतः यह मत भी प्रमाणविरुद्ध है कि कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद छठी-सातवीं शती ई० में हुए थे। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ईसा-पूर्वोत्तर प्रथम शती में हुए थे, यह मत अक्षुण्ण रहता है।
१२. डॉ० सागरमल जी का दूसरा तर्क यह है कि तत्त्वार्थसूत्र तथा उसके उमास्वातिकृत भाष्य में नयप्रमाण-सप्तभंगी का भी उल्लेख नहीं है, जब कि कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय में उसका स्पष्ट शब्दों में वर्णन है। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक सप्तभंगी का भी विकास नहीं हुआ था, अतः तत्त्वार्थसूत्र कुन्दकुन्द
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