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________________ ग्रन्थसार [एक सौ तीन] तत्त्वार्थसूत्र से अर्वाचीन सिद्ध होंगे, क्योंकि वे 'तत्त्वार्थसूत्र' से कई गुना विस्तृत हैं, तथा उनमें विषय का वैविध्य और नवीनता भी है, अर्थात् उनमें उन विषयों का वर्णन है, जो तत्त्वार्थसूत्र में नहीं हैं। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र में व्याख्या-दृष्टान्तादिगत विस्तार को छोड़कर ऐसा विषयवैविध्य या विषयविस्तार तथा विशेषीकरण-विभेदीकरण आदि भी विद्यमान हैं, जो कुन्दकुन्दसाहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होते। (अध्याय १०/ प्र.४)। इस प्रकार मान्य मालवणिया जी ने तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा कुन्दकुन्दसाहित्य में जैनदर्शन के रूप को विकसित मान कर, कुन्दकुन्द को तत्त्वार्थसूत्रकार से अर्वाचीन अर्थात् तीसरी-चौथी शताब्दी ई० के बाद का साबित करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे सभी मिथ्या सिद्ध हो जाते हैं। अतः यह निर्णय अबाधित ठहरता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे। ११. किसी भी श्वेताम्बर-आगम में गुणस्थान-सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं है। समवायांग में १४ गुणस्थानों के नाम वर्णित हैं, किन्तु वे प्रक्षिप्त हैं। भगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि में गुणस्थानों के नाम-जैसे १३ शब्द उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनका गुणस्थानसिद्धान्त से कोई सम्बन्ध नहीं है। डॉ० सागरमल जी ने तत्त्वार्थसूत्र को स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा (पाँचवीं शती ई० से पूर्ववर्ती) में रचित मानकर उसमें भी गुणस्थान-सिद्धान्त का अभाव बतलाया है। और चूँकि षट्खण्डागम, कुन्दकुन्दसाहित्य, भगवती-आराधना, मूलाचार आदि में गुणस्थानों के आधार पर विस्तार से निरूपण किया गया है, अतः डॉक्टर सा० का मत है कि गुणस्थानसिद्धान्त तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद विकसित हुआ है। इसलिए समयसार, नियमसार, भगवती-आराधना आदि की रचना तत्त्वार्थसूत्र (श्वेताम्बरमतानुसार तीसरी-चौथी शती ई०) के बहुत बाद, छठी शती ई० के उत्तरार्ध में अथवा उसके भी बाद हुई है (अध्याय १०/प्र.५ / शी.१)। अर्थात् कुन्दकुन्द छठी या सातवीं शती ई० के आचार्य हैं। डॉक्टर सा० ने तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानसिद्धान्त के अभाव का हेतु यह बतलाया है कि उसमें न तो 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग हुआ है, न ही चौदह गुणस्थानों के नाम एक साथ बतलाये गये हैं। गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में जो गुणस्थानों के नाम आये हैं, उन्हें डॉक्टर सा० ने गुणस्थान न कहकर आध्यात्मिक विकास की अवस्था कहा है। डॉक्टर सा० की यह मान्यता प्रत्यक्ष प्रमाण का सरासर अपलाप है। यह निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध है क-तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानों का उल्लेख न केवल गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में है, अपितु परीषहों, ध्यानभेदों, आहारकशरीर और पञ्चचारित्रप्रकारों के वर्णन-प्रसंग में भी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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