SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [एक सौ दो] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ समानरूप से सत्य बतलाया है। यह तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में पाये जानेवाले जैनदर्शन के विकसित रूप का दूसरा उदाहरण है। निरसन-समयसार की उक्त गाथाओं की यह व्याख्या कुन्दकुन्द के मत के सर्वथा प्रतिकूल है। उन्होंने तो उन गाथाओं में यह कहा है कि जगत्कर्तृत्व-सम्बन्धी उक्त दोनों मान्यताएँ मिथ्या हैं। १०.४. हेतु-कुन्दकुन्द ने शुभ, अशुभ और शुद्ध की अवधारणाएँ सांख्यकारिका से ग्रहण की हैं। निरसन-कुन्दकुन्द ने स्वयं कहा है कि 'मैंने श्रुतकेवली के उपदेश को ही समयसार में वर्णित किया है'-"वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं" (स.सा. / गा.१)। अतः सांख्यकारिका से ग्रहण करने की धारणा कपोलकल्पित है। १०.५. हेतु-कुन्दकुन्द ने सांख्यमत का अनुकरण कर आत्मा को कर्ता और अकर्ता कहा है। निरसन–इस मान्यता का कोई प्रमाण नहीं है। कुन्दकुन्द का समस्त तत्त्वनिरूपण श्रुतकेवली के उपदेश पर आधरित है १०.६. हेतु-कुन्दकुन्द ने सांख्यदर्शन से प्रभावित होकर आत्मा के अकर्तृत्व का समर्थन और कर्मों के लिए 'प्रकृति' शब्द का प्रयोग किया है। निरसन-सांख्यदर्शन पुरुष (आत्मा) को सर्वथा अकर्ता और प्रकृति को सर्वथा की मानता है। किन्तु कुन्दकुन्द ने इन दोनों के सर्वथा अकर्तृत्व और सर्वथा कर्तृत्व का निषेध किया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कुन्दकुन्द ने सांख्यदर्शन से प्रभावित होकर 'पुरुष' के सर्वथा अकर्तृत्व का समर्थन किया है। तथा 'कर्मों' के लिए 'प्रकृति' शब्द का प्रयोग कुन्दकुन्द से पूर्ववर्ती षट्खण्डागम में मिलता है, तब यह कथन भी मिथ्या सिद्ध हो जाता है कि कुन्दकुन्द ने सांख्यदर्शन से 'प्रकृति' शब्द ग्रहण किया है। १०.७. हेतु-तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा कुन्दकुन्द-साहित्य में प्रतिपाद्य विषय की विविधता और व्याख्या-दृष्टान्तादि-कृत विस्तार है। यह तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा कुन्दकुन्दसाहित्य के अर्वाचीन होने का लक्षण है। निरसन-किसी ग्रन्थ के संक्षेप और विस्तार का कारण प्रयोजनभेद और कर्त्तागत रुचिभेद है, काल की पूर्वापरता नहीं। यदि ग्रन्थ के लघुरूप को प्राचीनता का और विस्तृतरूप को अर्वाचीनता का लक्षण माना जाय, तो सभी श्वेताम्बर- अंग' और 'उपांग' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy