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________________ ग्रन्थसार [एक सौ एक] ९.४. हेतु-जिस मर्करा-ताम्रपत्र में कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख है, उसमें ७वीं सदी ई० में प्रचलित हुए 'भटार' शब्द का प्रयोग है। निरसन-आदरसूचक 'भटार' शब्द का प्रचलन प्राचीन है। ९.५. हेतु-कोई भी पट्टावली वीर नि० सं० के अनुसार रचित नहीं है। निरसन–'तिलोयपण्णत्ती' आदि में वीर-निर्वाणानुसार ही कालगणना है। (अध्याय १० / प्र.२ / शी.६)। १०. पं० दलसुख मालवणिया मानते हैं कि कुन्दकुन्द 'तत्त्वार्थसूत्र' की रचना के बाद अर्थात् तीसरी-चौथी शताब्दी ई० के पश्चात् हुए थे। इस मत के समर्थन में उनके द्वारा उपस्थित किये गये सभी हेतु असत्य हैं। यथा १०.१. हेतु-उमास्वाति के 'तत्त्वार्थ' में वर्णित जैनदर्शन की अपेक्षा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रतिपादित जैनदर्शन का रूप विकसित है। उदाहरणार्थ उन्होंने ब्रह्माद्वैत और विज्ञानाद्वैत का अनुकरण कर जैनदर्शन को अद्वैतवाद के निकट लाकर खड़ा कर दिया है। निरसन-ब्रह्माद्वैतवाद में ब्रह्मरूप एक ही द्रव्य का अस्तित्व मान्य है, उसकी संख्या भी एक ही मानी गयी है, और उसमें द्रव्य और गुण का भेद भी नहीं माना गया है। इस तरह वह एकान्त अद्वैतवाद है। कुन्दकुन्द ने छह द्रव्यों का प्रतिपादन किया है, उनमें भी जीवद्रव्य की संख्या अनन्त और पुद्गल की अनन्तानन्त बतलायी है, साथ ही प्रत्येक द्रव्य में लक्षणभेद की दृष्टि से द्रव्य और गुण का भेद भी बतलाया है और सत्ता की दृष्टि से उनमें अभेद भी स्वीकार किया है। इस प्रकार कुन्दकुन्द ने द्वैत और अद्वैत दोनों का प्रतिपादन किया है, जो वस्तुतः द्वैताद्वैतरूप द्वैत ही है। अतः कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित जैनदर्शन ब्रह्माद्वैतवाद के निकट तो क्या, इतना अधिक दूर है जितना धरती से आकाश। (अध्याय १०/प्र.४ / शी.२)। १०.२. हेतु-पंचास्तिकाय की 'सस्सदमध उच्छेदं' इत्यादि गाथा (३७) से ज्ञात होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द न केवल पुराने 'शाश्वतवाद' और 'उच्छेदवाद' से, बल्कि नवीन 'विज्ञानाद्वैत' और 'शून्यवाद' से भी परिचित थे। निरसन-उक्त गाथा में वर्णित 'शाश्वत'-'उच्छेद', 'शून्य'-'विज्ञान' आदि परस्परविरोधी वाद नहीं हैं, अपितु जीव द्रव्य के परस्परविरुद्ध धर्मयुगल हैं। १०.३. हेतु-कुन्दकुन्द ने समयसार (गाथा ३२१-३२३) में विष्णु के जगत्कर्तृत्व की मान्यता और आत्मा के जगत्कर्तृत्व की मान्यता, दोनों को व्यवहारनय की अपेक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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