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[ सौ ]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ थी। इस आधार पर डॉ० के० बी० पाठक ने अनुमान लगाया है कि विक्रम की छठी शती (५ वीं शती ई०) के कदम्बवंशीय राजा श्रीविजय - शिवमृगेशवर्मा के लिए उक्त ग्रन्थ रचे गये थे, अतः कुन्दकुन्द विक्रम की छठी शती ( पाँचवीं शताब्दी ई०) में हुए थे। किन्तु, आचार्य जयसेन ने प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति में प्रथम प्रस्तावनावाक्य के द्वारा शिवकुमार का जो वर्णन किया है, उससे स्पष्ट है कि वे राजा नहीं थे, अपितु कोई अराजवंशीय पुरुष थे। अतः डॉ० पाठक का मत निरस्त हो जाता है। (अध्याय १० / प्र.२ / शी. १) ।
९. मुनि श्री कल्याणविजय जी ने कुन्दकुन्द को दिगम्बरजैनमत का प्रवर्तक माना है और डॉ० के० बी० पाठक को प्रमाण मानते हुए, यह भी माना है कि राजा श्रीविजय - शिवमृगेशवर्मा कुन्दकुन्द के शिष्य थे, इसलिए कुन्दकुन्द विक्रम की छठी शती में हुए थे। किन्तु उक्त राजा के देवगिरि - ताम्रपत्रलेख (४७० - ४९० ई० ) में श्वेतपटमहाश्रमण संघ और निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ को ग्रामदान किये जाने का उल्लेख है, जिससे स्पष्ट है कि दिगम्बरजैन - परम्परा (निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ) उक्त राजा के पहले से चली आ रही थी । अतः मुनि जी की कुन्दकुन्द के दिगम्बर जैनमत - प्रवर्तक होने की मान्यता से सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द भी राजा श्रीविजय - शिवमृगेशवर्मा से बहुत पहले हुए थे । तथा, यदि कुन्दकुन्द इस राजा के गुरु होते, तो यह राजा ताम्रपत्रलेख में उनके नाम का उल्लेख अवश्य करता । किन्तु, नहीं किया, इससे स्पष्ट होता है कि कुन्दकुन्द श्रीविजय - शिवमृगेशवर्मा के गुरु नहीं थे। इन दो हेतुओं से भी कुन्दकुन्द के विक्रम की छठी शती में होने का मत निरस्त हो जाता है। मुनि कल्याणविजय जी ने विक्रम की छठी शती के समर्थन में और भी अनेक हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे भी निरस्त हो जाते हैं। यथा
९. १. हेतु - नियमसार में वि० सं० ५१२ में रचित 'लोकविभाग' नामक ग्रन्थ का उल्लेख है।
निरसन - नियमसार में 'लोयविभागे' (एकवचनान्त) पद नहीं है, अपितु 'लोयविभागेसु' ('लोकविभागों में' - ' बहुवचनान्त) पंद है। अतः यह किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ का नाम नहीं है, अपितु लोकानुयोग-विषयक प्रकरणसमूह का वाचक है।
९.२. हेतु — समयसार में तृतीय शती ई० के विष्णुकर्तृत्ववाद का उल्लेख है। निरसन - विष्णुकर्तृत्ववाद ऋग्वेदकालीन है।
९. ३. हेतु - षट्प्राभृतों में परवर्ती चैत्यादि एवं शिथिलाचारी मुनियों का वर्णन है । निरसन - चैत्यगृह - प्रतिमादि ईसापूर्वकालीन हैं और 'पासत्थ' आदि शिथिलाचारी मुनियों का अस्तित्व अनादि से है।
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